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• निज भक्त-जन-प्रणत-पाल का ध्यान है किया मन ही मन मोद-मग्न अतीव हो सुविनम्र-भाव से सुर-कुलेश-पूज्य ने । वर-रूप से माँगा उन्होंने निज ईश से-] देव ! अभिलाषा है बस इतनी ही मेरी, तव दासानुदास की, समझ यह सके पुत्र मेरा-सौंपता हूँ तुम्हें सहर्ष इसेनिज मातृभूमि के प्रति कर्तव्य अपना; जोवित रहे ता उसे ही पूरा करने के लिए- सफल कर कामना मेरी--अन्यथा, भार बन जीना इसका व्यर्थ है सर्वथा । [ झुके रहे श्राचार्य क्षण भर श्रावेश में; भक्ति से परिपूर्ण हुअा मानस उनका; गद्गद्कण्ठ थे हुए वे, पुलकित भी; नयन सजल दोनों कुछ मुंदे हुए थे । श्राभास-मा हुअा उन्हें--साकार विष्णु जैसे खड़े मुस्करा रहे हों समक्ष उनके ।
कर कञ्ज दाहना, उठा फिर धीरे-धीरे; वचन-मिस फूल झडे ये हँसमुख से---- धन्य है वोरबर ! त्याग को तुम्हारे ।