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खिला अहा ! सुगृह-वाटिका में मेरी; प्रिय प्राणप्यारा है लाल वह जननी का अपनी, देख-देख मुदित होती नित्य ही। [ लगे दीखने दृगो में प्रेमाश्रु दो उनके, स्रवित होती पय-धार ज्यों मातृस्तनों से, उमड़ती ममता है जब पुत्र के लिए । पर कहा संयत स्वर में उन्होने-] दूंगा बलिदान मैं उसे ही पूर्णाहुति में जननी-प्रति-कर्तव्य-पालन सुयज्ञ की; प्रण-पालनार्थ दया था बलिदान जैसे हृदय-सा सुवन सहर्ष मोरध्वज ने । जननी भी संतुष्ठ हो जायगी लख इसे, ऋणभार कुछ हलका हो जायगा मेरा,
और अमरेश का शङ्का-समाधान होगान सोच सकेंगे तब फिर वे कभी-देते न समुचित ध्यान गुरुवर ही हमारे ।
[ गर्व से ऊँचा हो गया मस्तक प्राचार्य का । प्रणाम करता हुश्रा नत जन उठा है निज शीश ज्यों ईश के समीप, अपने को भूलकर अति हो भक्ति-भाव से त्योंही