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[ उन्नत मार्तण्ड के पतन का समय था; यौवन-मद उतर चुका था दिनेश का; उद्दण्डता न बची, गम्भीरता छा रही थी, प्रखरता भी शान्त हो गई थी धीरे-धीरे--- अोज ज्यों परिणत हुआ हो माधुर्य में---.. या दुख, क्षोभ, ग्लानि से रक्त-वर्ण हुअा हो कुदशा देख अत्याचार-पीड़ित जनों की ।
स्वाभाविक दीखते प्रकृति के दृश्य मभी--- वायु में शेष राव-साहचर्य का अंश था, पर निर्बल हुअा था उमके पतन से । निर्जीव-से हुए प्राणीमात्र कुम्हलाए-से, चर-अचर सभी उस ऋतु में ग्रीष्म की । शान्त रविकर-निकर निरख साँस ली। सन्तोष की उन्होंने मन में यों मुदित हो, कठोर शासक के पतन से प्रसन्नता, होती ज्यों प्रजाजनों को बड़े भाग्य से कभी :
जीवन-दान तब देने लगे वहाँ, अहा !
आश्वासना-सा वाटिका में सहृदय सभी ; तप्त लताओं औ' तरुवरों को मींचते थे, निज कर से उठाते उन्हें थे धीरे-धीरे, रज धोते तब उनके मृदु पल्लवों की,