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बहुत मीन धार से शोतन वारि को---- दलित अछुत पुत्रों को चुमकारता हो, कोई ज्यों ; अथवा सुजन व्रण धो रहे हों,
आर्द्र भाव से ग्घिलकर, सतर्कता से, किमी सुकोमल-कलेवरा के शरीर के ।
शीतल निकुञ्ज की छाया में खड़े दोखते, सुरगुरु थे, चिन्ता-धनाच्छादित रवि-से, व्योम में ; विचारमग्न, सर झुकाए हुए, व्यस्त, वे टहलते थे। आँधी सी उठ रही, थी मस्तिष्क में उनके ]
सुरगुरु
स्थिति ऐसी में है क्या कर्तव्य अब मेरा ? पद त्याग चुका हूँ मैं, ठीक है ; पर जन्मभूमि का ऋण तो मुझे चुकाना ही है अभी--कर्तव्यबद्ध तब था, धर्मबद्ध अब भी हूँ मैं।
[सहसा देखने लगते हैं वे सामने अति तीब्र दृष्टि से एक टक क्षण भर ।