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________________ अष्टम लम्भ २६५ तदनन्तर राजाने कन्या देना ही करने योग्य उपकार है ऐसा निश्चयकर उनसे विवाहको प्राथना की और समुद्रके समान गम्भीर दयालु जीवन्धर स्वामीने भी धीरे-धीरे स्वीकृति दे दी। फलस्वरूप कुरुपति जीवन्धर स्वामीने राजाके द्वारा प्रदान की हुई, यौवनके आरम्भसे मदमाती, वक्षःस्थलपर माला धारण करनेवाली, एवं समस्त गुणों से श्रेष्ठ राजपुत्री कनकमालाको उत्तम मुहूर्तके समय सुवर्णमय मण्डपमें स्वीकृत किया-विवाहा ॥५६॥ इस प्रकार महाकवि श्री हरिचन्द्रविरचित जीवन्धरचम्पू-काव्यमें कनकमालाकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला सातवाँ लम्भ समाप्त हुआ। अष्टम लम्भ जोवन्धर स्वामी नीले केशोंवाली कनकमालाको विवाहकर सुखरूपी सागरमें निमग्न हो गये और सालोंमें स्नेह होनेके कारण मृगनयनी कनकमालाके साथ रमण करते हुए चिरकाल तक वहीं रहे आये ॥१॥ __ अथानन्तर किसी एक दिन सामने खड़ी हुई, स्त्रीसे जीवन्धर स्वामीने पूछा । उस स्त्रीके मुखारविन्दसे मन्द हास्यरूपी मकरन्द भर रहा था। विस्मयके कारण उसके नेत्ररूपी नीलकमल टिमकार रहित थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो सालकआनन अर्थात् अलक सहित आनन (पक्षमें साल वृक्षोंके काननसे) लाल-लाल अधररूपी पल्लवोंकी सुगन्धिके कारण खिंचकर आये हुए किन्तु नासारूपी चम्पकके देखनेसे वहीं पर निश्चलताको प्राप्त हुए भ्रमर ही हों। उसकी रोमराजि रूपी लताकी कान्ति मरकतमणिकी चूड़ीकी प्रभासे अत्यन्त सघन थी। हिलते हुए स्तनोंसे पराजित हंसके समान उसकी चाल थी, इसलिए मन्दवायुसे जिसके दो गुच्छे हिल रहे थे ऐसी चलती-फिरती मानो सुवर्णकी लता ही थी । जीवन्धर स्वामी यद्यपि सामने बैठे थे तो भी समस्त मनुष्योंके नेत्ररूपी कमलोंको निमीलित करनेवाले तेजके समूहसे व्याप्त थे अतः वह स्त्री उन्हें देखनेमें अक्षम थी। फलस्वरूप कमलके समीप उल्लसित श्रेष्ठ पल्लवका भ्रम करने वाले एवं नेत्रोंके उपरिम भागसे सुन्दर हाथसे मुख छिपाकर उन्हें देख रही थी । जीवन्धर स्वामीने उससे पूछा कि हे कुरङ्ग लोचने ! हे मृदुल शरीरे ! तुम क्या कहना चाहती हो । चूँकि तुम्हारे मुखकी लक्ष्मी मन्द हास्यसे उज्ज्वल है अतः वह आदरसे सूचित कर रही है कि तुम कुछ कहना चाहती हो ॥२।। जिस प्रकार भ्रमरोंसे मुखर अर्थात् शब्द करने वाली कमलिनी मकरन्दके प्रवाहको धारण करती है उसी प्रकार जीवन्धर स्वामीसे पूछी गई वह चकोरलोचना स्त्री मधुर वाणीको धारण करने लगी ॥३॥ उसने कहा कि यहाँ और आयुधशालामें भी एक ही साथ लक्ष्मीसे सुशोभित आपको देखकर मेरा मनरूपो मन्दिर आश्चर्य से चित्रित हो रहा है। उसमें कुछ कहनेकी इच्छाके साथ अपार हर्ष क्रीड़ा कर रहा है ।।४।। - इस तरह चन्द्रमाकी कलाके समान कान्ताजनोंकी कटाक्षलीलाके समान अथवा कामदेवकी धनुर्यष्टिके समान कुटिल एवं मधुर वचनरचना सुनकर जिनका हृदय आश्चर्यसे भर रहा है ऐसे जीवन्धर स्वामी 'यह क्या अश्रुतपूर्व और अदृष्टपूर्व बात कह रही है। ऐसा चिन्तन करते हुए विचार करने लगे कि कहीं क्रमसे नन्दाढ्य तो नहीं आ पहुँचा है।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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