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जीवन्धरचम्पूकाव्य
प्रकट होती है उसी प्रकार राजाके मुखारविन्दसे कुशल समाचार पूछनेके बाद निम्नलिखित वाणी प्रकट हुई ॥५१॥ उन्होंने कहा कि किस जगहके लोगोंके मन आपके विरहसे कातर हो रहे हैं और आपके दर्शनसे किस जगहके लोगोंके नेत्रोंको आनन्द उत्पन्न होनेवाला है अर्थात्आप कहाँसे आये हैं और कहाँ जानेवाले हैं ? ॥५२॥
परिपक्क भाग्यको धारण करनेवाला वह कौन सा देश है जो कि आपके प्रवालतुल्य चरण युगलके स्पर्श-सुखका अनुभव करेगा ? किस नगर सम्बन्धी महलोंके आँगनोंको अलंकृत करने वाली स्त्रियोंके नेत्ररूपी नील कमलोंमें आपके दर्शनसे उत्पन्न हुए वर्षाश्रुओंका निष्यन्द मकरन्द की शङ्का उत्पन्न करेगा? किस वंशरूपी लतामें ( पक्षमें बांसकी लतामें) आप उपमारहित होकर भी ( पक्षमें मुक्ताकी उपमासे रहित होकर भी) मुक्ताफलके समान आचरण करते हैं ?
और कौन मनुष्य आपके द्वारा पुत्रवालोंमें भाग्यवानोंमें, माहात्म्यवानोंमें तथा कीर्तिमानोंमें मुकुटमणिता-श्रेष्ठताको प्राप्त हुआ है-आप किसके पुत्र हैं ?
वचनोंके मार्गमें शीघ्रतासे आगे बढ़नेवाले जीवन्धर स्वामीने यथायोग्य उत्तरके अक्षरोंसे राजाके पूर्वोक्त प्रश्नोंका समाधान किया।॥५३।। विनयपूर्ण निर्दोष उत्तर सुननेसे जिसका कौतूहल दूना हो गया था ऐसे राजाने चिरकाल तक उनसे याचना की कि आप हमारे पुत्रोंको धनुषकी श्रेष्ठ कला सिखला दीजिये ॥५४|| बुद्धिमान् राजाने जीवन्धर स्वामीका अभिप्राय जानकर अपने सब पुत्र उनके अधीन कर दिये ॥५५॥
तदनन्तर शुभ मुहुर्तके समय जीवन्धर स्वामीने आयुधशालामें प्रवेशकर राजपुत्रोंके लिए धनुर्विद्याविषयक कुशलताका व्याख्यान करना शुरू किया। जिस आयुधशालामें उन्होंने प्रवेश किया था वह धनुष, भिण्डिपाल, परिघ, मुद्गर, फरशा आदि शस्त्रोंसे सुशोभित थी। वह कभी पृथिवीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार पृथिवी शरधि अर्थात् समुद्रोंसे अलंकृत होती है उसी प्रकार वह आयुधशाला भी शरधि अर्थात् तरकशोंसे सुशोभित थी। कभी देवपुरीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार देवपुरी, सर्वतोऽमर शोभिता अर्थात् सब ओरसे देवों के द्वारा सेवित है उसी प्रकार आयुधशाला भी सर्वतोमर सेविता अर्थात् सब प्रकारके तोमर नामक शस्त्रोंसे सेवित थी। कभी समुद्रकी वेलाके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार समुद्रकी वेला प्रचुरतर वारिविराजिता अर्थात् बहुत भारी जलसे सुशोभित रहती है उसी प्रकार आयुधशाला भी प्रचुरतरवारि-विराजिता अर्थात् बहुत भारी तलवारोंसे सुशोभित थी। कभी वनकी सीमाके समान प्रतिभासित होती थी क्योंकि जिस प्रकार वनकी सीमा पत्रिकुलपरिवृत्ता अर्थात् पक्षियोंके समूहसे परिवृत रहती है उसी प्रकार आयुधशाला भी पत्रिकुलपरिवृता अर्थात् वाणोंके समूहसे परिवृत थी। शस्त्रांकी कान्तिसे जिसकी लालिमा दूनी हो गई थी ऐसी लाल मिट्टीसे वहाँका भूमिभाग व्याप्त था इसलिए वह आयुधशाला ऐसी जान पड़ती थी मानो धनुर्विद्याके पण्डित जीवन्धर स्वामीका प्रताप ही धारण कर रही थी और बीचमें गड़े हुए वज्रमय खम्भसे शोभित थी इसलिए शस्त्रोंके समूहसे जीतकर कैद किये हुए इन्द्रके वज्रको ही मानो धारण कर रही थी। - तदनन्तर राजपुत्रोंका समूह धनुर्विद्यामें निपुणताको, जीवन्धर स्वामीकी कीर्तिरूपी तरङ्गोंका समूह तीनों लोकोंको और राजा आनन्दरूपी रसको प्राप्त हुआ ॥५६॥ बुद्धिमानोंमें अग्रगण्य राजाने विद्याविषयक चातुर्यरूपी चौकीपर बैठे हुए अपने पुत्रोंके समूहपर दृष्टि फैलाई । सुवर्णमय आसनपर विद्यमान जीवन्धर स्वामीपर प्रीति बढ़ाई और अन्तरङ्गमें चिरकाल तक यह चिन्ता विस्तृत की कि वीरोंके समूहसे पूजित कलाके दानरूपी माननीय उपकारसे प्रशंसनीय इन जीवन्धर स्वामीका क्या उपकार किया जाय ? ॥७॥ .