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________________ जीवन्धर चम्पूकाव्य तदनन्तर जीवन्धर स्वामीने पहले शरीरसे आयुधशालामें प्रवेश किया और उसके बाद मनसे । सो ठीक ही है क्योंकि जब कौतुक विना किसी रुकावटके बढ़ता जाता है तब क्रमभाव नहीं दिखाई देता ॥५॥ बड़े भाईको देखकर जिसका विस्मय बढ़ रहा था ऐसा नन्दायने आनन्दके भारसे गुरुतर शरीरसे प्रणाम किया ।।६।। खिले हुए फूलोंसे सुशोभित मस्तकसे उसने पृथिवीका स्पर्श नहीं कर पाया था कि जीवन्धर स्वामीने वेगसे अपनी कोमल बाहु द्वारा पकड़ लिया ।।७।। आनन्दके भारसे परिपुष्ट हुआ नन्दाढयका शरीर, कवाटके समान चौड़े जीवन्धरके वक्षःस्थलमें नहीं समा सकता था तो भी उन्होंने अपनी लम्बी भुजाओंके युगलसे उसका आलिङ्गन किया था ।।८।। जिनका शरीर छोटे भाईके शरीरके समागमसे उत्पन्न सुखकी सूचना देनेवाले सघन रोमोंसे व्याप्त था ऐसे जीवन्धर स्वामीने विनयसे झुके हुए भाईका शिर बार-बार चूमा ॥६॥ हर्षके आँसुओंसे जिसका शरीर नहलाया गया था तथा जिसके नेत्र आनन्दसे विकसित हो रहे थे ऐसे भाईसे उन्होंने पहले कुशल-समाचार पूछा और उसके बाद किस तरह आये ? यह प्रश्न किया ॥१०॥ कानोंसे भाईका प्रश्न सुनते ही नन्दाढयके मनमें पिछला सब वृत्तान्त स्मृत हो उठा, बड़े भाईके वियोगका दुःख फिरसे ताजा हो गया । उससे दुखी होकर ही मानो बड़े वेगसे साँसें चलने लगीं। स्मृतिपथमें जो वियोगाग्नि उपस्थित थी वह उस निःश्वाससे अत्यधिक प्रज्वलित हो गई। अश्रु भी उस वियोगाग्निसे उष्ण हो गये और इसके पहले जो हर्षके ठण्डे अश्रु आये थे वे भी पिछले उष्ण अश्रुओंसे मिलकर दुःखके अश्रुरूपमें परिणत हो गये। उन्हें वह सब ओर इस तरह बिखेरने लगा मानो टूटे हुए मुक्ताहारके मोती ही विखेर रहा हो । उसका हृदय गद्गद हो रहा था। जिस किसी तरह वह रुलाईके भारी वेगको रोककर गद्गद स्वरसे उत्तर देनेके लिए तैयार हुआ। उसने कहा कि जब आप, हम लोगोंके पापोदयके कारण राजपुरसे निकलकर बाहर चले गये थे तब समस्त भाइयोंके मनमें दुःसह शोकरूपी अग्नि एक दम प्रज्वलित हो उठी थी ॥११॥ समस्त बन्धुओंको वचनागोचर शोकरूपी सागरमें निमग्न देखकर हम मरनेको उद्यत थे ॥१२॥ ___ उस समय दुरन्त दुःखके कारण जिनका हृदय अत्यन्त दुखी हो रहा था ऐसे माता-पिता निरन्तर निकलने वाली अश्रुधारासे अतिवृष्टि नामक ईतिकी बाधाको धारण करते हुएके समान इस प्रकार विलाप कर रहे थे। _ 'हा पुत्र ! तू कहाँ है ? हमारा भाग्य बड़ा दुःखदायी है, पुत्रके ऊपर दुःसह विपत्ति आनेपर भी हमारा यह जीवन निश्चल है मानो इसने अपनी कठोरतासे वज्रको जीत लिया है। हाय ! हाय !! इस लम्बी दुर्दशाको कैसे पार किया जाय ॥१३।। इस तरह माता-पिताके निरङ्कश विलापका स्वर जब मुनि महाराजके वचनोंका स्मरण करनेसे जिस किसी तरह शान्त हो गया था, जब बन्धु लोग निरन्तर जलती हुई शोककी ज्वालाओंसे विह्वल हो रहे थे, नगरवासी काष्ठाङ्गारकी निन्दा करनेमें तत्पर थे, आपके साथियोंके दुःखका पूर दुष्पूर हो रहा था और हम मरनेका निश्चय होनेसे अन्य सबका वृत्तान्त भुला चुके थे तब भाग्यवश उचित अवसरपर हमें ध्यान आया कि देखें विद्याक द्वारा समस्त वृत्तान्त जानने वाली भाभी गन्धर्वदत्ताका क्या हाल है ? इस तरह आपके दर्शनसे उत्पन्न हुए सुखकी प्राप्ति करानेवाले अदृष्टसे प्रेरित होकर मैं शीघ्र ही भाभीके घर गया और इस प्रकार विषादसे दीन अक्षर कहने लगा ॥१४॥ हे भाभी ! यद्यपि तुम सब पद्धतिको जानती हो तो भी केशोंमें नवमालिका और शरीरपर हल्दी क्यों धारण कर रही हो। तुम्हारी यह रहन-सहन योग्य नहीं है। वास्तवमें पतिरहित स्त्रियोंका सुखिया रहन-सहन सब लोगोंकी निन्दाका स्थान होता है॥१॥ इस प्रकार कहने पर मन्द-मन्द मुसकाती
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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