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________________ १०२ जीवाभिगमसूत्रे न्यपि द्रव्याणि आहरन्तीति 'जाई गंधओ सुभिगंधाइं आहारेति ताई कि एगगुणसुभिगंधाई आहारेति जाव अणंतगुणसुभिगंधाई आहारेति' यानि गन्धतः सुरभिगंधानि तानि किमेकगुणसुरभिगन्धानि आहरन्ति यावत् अनन्तगुणसुरभिगन्धानि आहरन्ति अत्र यावत्पदेन एकगुणसुरभिगन्धादारभ्य असख्यातगुणसुरभिगन्धपर्यन्तस्य सग्रहो भवति, इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम ? एगगुणसुन्भिगंधाई पि आहारेंति जाव अणंतगुणसुभिगंधाई पि आहारैति' एगगुणसुरभिगन्धान्यपि आहरन्ति यावदनन्तगुणसुरभिगन्धान्यपि द्रव्याणि आहरन्ति ते सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः, अत्र यावत्पदेन द्विगुणसुरभिगन्धादारभ्य असख्यातगुणसुरभिगन्धान्तस्य सग्रहो भवतीति । एवं दुरभिगंधाई पि' एव सुरभिगन्धप्रकरणे यथा कथितं तथैव दुरभिगन्धमाश्रित्यापि वक्तव्यम् , तथाहि-यदि गन्धतो गंधओ सुन्भिगंधाई आहारेंति, ताई कि एगगुणसुब्भिगंधाई आहारेति, जाव अणंगुणमुभिगंधाई आहारेंति, " यदि वे गंध की अपेक्षा सुरभिगंध युक्त द्रव्यो का आहार करते हैं तो क्या वे एकगुण सुरभिगंध से युक्त द्रव्यों का आहार करते है या यावत् अनन्त गुण सुरभि गंध से युक्त द्रव्यो का आहार करते हैं ? यहाँ यावत्पद से एकगुण सुरभिगन्ध से लेकर असंख्यातगुण सुरभिगन्ध से युक्त द्रव्यों का आहार करते है । ऐसा पाठ गृहीत हुआ है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं- "गोयमा! एग गुणसुन्भिगंधाइ पि आहारेंति, जाव अणंतगुणसुन्भिगंधाई पि आहारेति," "हे गौतम ! वे एकगुण सुरभिगंध वाले द्रव्यों का भी आहार करते है और यावत् अनन्त गुण सुरभिगधवाले द्रव्यो का भी आहार ग्रहण करते है । यहाँ यावत्पद से "द्विगुण सुरभिगंध से लेकर असंख्यातगुण सुरभिगंध से युक्त द्रव्यों का आहार ग्रहण करते हैं ॥ ऐसा पाठ संगृहीत हुआ है “ एवं दुन्भिगंधाई पि" सुरभिगंध के प्रकरण माला२ ४२ छ, गौतम स्वामीना प्रश्न "जइ गंधो सुभिगधाइ आहारेंति, ताई कि एगगुणसुभिगंधाइ आहारेंति, जाव अणतगुणसुभिगधाइ आहारेंति" ने तमा धनी અપેક્ષાએ સુરભિગંધવાળાં દ્રવ્યોનો આહાર કરે છે તે શું તેઓ એક ગણી ગંધવાળા સુરભિગંધવાળાં દ્રવ્યને આહાર કરે છે, કે બેથી લઈને દસ ગણી, સંખ્યાત ગણી, અસંખ્યાત ગણી, કે અનંત ગણી સુરભિગંધવાળાં દ્રવ્યને આહાર કરે છે ? महावीर प्रभुने। उत्त२-"गोयमा ! एगगुणसुन्भिगंधाई पि आहारैति, जाव अणंतगुण सुन्भिगधाई पि आहारति" गीतमा तया ४ गयी सुरभिजवाजा द्रव्यानी ५४ આહાર કરે છે, એથી લઈને દસ ગણી સુરભિગંધવાળા દ્રવ્યોને પણ આહાર કરે છે, સખ્યાત ગણી સુરભિગંધવાળાં દ્રવ્યોને પણ આહાર કરે છે, અસંખ્યાત ગણી સુરભિવાળાં દ્રવ્યોને 4 माहारे ४२ छ भने मानत जी सुरमिवामां द्रव्यान। ५५५ माहा२ ४२ छ. 'एवं दुभिगधाइ पि" मे १ ४थन लिi द्रव्याना विष ५ सम सयुमेट है
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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