SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चयनय : कुछ प्रश्नोत्तर ] [ ६१ करने योग्य है न ? यदि राग निषेध करने योग्य है. तो वह अपना कैसे हो सकता है ? जो निषेध्य है, वह मैं नहीं हो सकता, मैं तो प्रतिपाद्य हूँ। राग निषेध्य है, अतः व्यवहार है। निर्मलपर्याय करने योग्य है, प्राप्त करने योग्य है, इसलिए निश्चय है। निर्मलपर्यायरूप निश्चय विकाररूप व्यवहार का निषेध करता हुआ, उसका अभाव करता हुआ उदय को प्राप्त होता है। इसप्रकार एकदेशशुद्धनिश्चयनय का प्रयोजन निर्मलपर्याय से त्रिकाली ध्रुव की एकता स्थापित कर, विकारी पर्याय से पृथक्ता स्थापित करना है। विकारीपर्याय से पृथकता स्थापित हो जाने पर अब कहते है कि एकदेशशुद्धनिश्चयनय ने विकारी पर्याय से पृथकता बताने के लिए जिस निर्मलपर्याय के साथ अभेद स्थापित किया था, वह भी अपूर्ण होने से आत्मा के स्वभाव की सीमा में कैसे आ सकती है ? आत्मा का स्वभाव तो परिपूर्ण है, उसके आश्रय से तो पर्याय में भी पूर्णता ही प्रगट होना चाहिए। यदि परिपूर्ण स्वभाव का परिपूर्ण आश्रय हो तो फिर अपूर्ण पर्याय क्यों प्रगटे ? पर्याय की यह अपूर्णता परिपूर्ण स्वभाव के अनुरूप नही है, अनुकूल भी नहीं है। अतः इसे भी उसमें कैसे मिलाया जा सकता है, कैसे मिलाये रखा जा सकता है ? एकदेशशुद्धनिश्चयनयरूप साधकदशा तो प्रस्थान है, पहुँचना नही; पथ है, गन्तव्य नहीं; साधन है, साध्य नही। तथा मैं तो परिपूर्ण केवलज्ञानस्वभावी हूँ, मैं तो अनंत अतीन्द्रिय-पानंद का कर्ता-भोक्ता है, मैं तो अनंतचतुष्टयलक्ष्मी का स्वामी है। आखिर इस क्षयोपशमभाव से मुझे क्या लेना-देना? और इसका भरोसा भी क्या ? आज का क्षयोपशमसम्यग्दष्टि कल मिथ्यादष्टि बन सकता है। प्राज का अच्छाभला विद्वान कल स्मृति-भंग होने से अल्पज्ञ रह सकता है। आज का क्षयोपशमसंयमी कल असंयमी हो सकता है। निर्मल हुई तो क्या, इस अपूर्ण एवं क्षणध्वंशी पर्याय से मुझे क्या ? यह तो आनी-जानी है। मेरे जैसे स्थायीतत्त्व का एकत्व, स्वामित्व, कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व तो क्षायिकभावरूप चिरस्थायी अनन्तचतुष्टयादि से ही हो सकता है। इसप्रकार जब निर्मलपर्याय से भी पृथक्ता स्थापित कर पूर्णशुद्ध क्षायिकपर्याय से युक्त द्रव्यग्राही शुद्धनिश्चयनय प्रगट होता है, तब एकदेशशुद्धपर्याय निषिद्ध हो जाती है; निषिद्ध हो जाने से व्यवहार हो जाती है।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy