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[ जिनवरस्य नयर इसप्रकार अपने प्रयोजन की सिद्धि करता हुआ एकदेशशुद्धनिश्न नय भी निषिद्ध होकर व्यवहारपने को प्राप्त हो जाता है; और साक्षात्व निश्चयनय प्रगट होता है।
यद्यपि क्षायिकभाव स्थायी है, अनन्त है; तथापि अनादि कातो ना मैं तो अनादि-अनन्त तत्त्व है। इस क्षायिकपर्याय से भी क्या महिमा है मे मैं तो ऐसा महिमावन्त पदार्थ हूँ कि जिसमें केवलज्ञान जैसी अनन्तपर निकल जावे तो भी मुझमें कोई खूट (कमी) आनेवाली नहीं । मैं तो अरू अटूट पदार्थ हूँ। केवलज्ञानादि क्षायिकभाव भी सन्तति की अपेक्षा ही अनंतकाल तक रहनेवाले हों, पर वस्तुतः तो पर्याय होने से एकस मात्र के ही हैं। मैं क्षायिकभाव जितना तो नहीं, ये तो मुझमें उठनेव तरंगें मात्र हैं । सागर तरंगमात्र तो नहीं हो सकता। यद्यपि तरंगें सा में ही उठती हैं, तथापि तरंगों को सागर नहीं कहा जा सकता । सागर गंभीरता, सागर की विशालता- इन लहरों में कहाँ ? सागर सागर और लहरें लहरें । सागर लहरें नहीं, और लहरें सागर नहीं। खरा स तो यही है, परमार्थ तो यही है-इसप्रकार परमभावग्राहीशुद्धनिश्चय शुद्धनिश्चयनय या साक्षात्शुद्धनिश्चयनय का भी निषेध करता हुआ र्ग होता है और साक्षात्शुद्धनिश्चयनय भी व्यवहार बनकर रह जाता है।
इसप्रकार निश्चयनय के ये भेद-प्रभेद परमशुद्धनिश्चनय के विष भूत त्रिकाली ध्रुवतत्त्व तक ले जाते हैं। सभीप्रकार के निश्चयनयों वास्तविक प्रयोजन तो यही है। इसी ध्येय के पूरक ओर भी अनेक प्रयो होते हैं, हो सकते हैं; पर मूल प्रयोजन यही है।
'न तथा' शब्द से सबका निषेध करनेवाला परमशुद्धनिश्चयन कभी भी किसी भी नय द्वारा निषिद्ध नहीं होता, अतः वह कभी । व्यवहारपने को प्राप्त नहीं होता, किन्तु वह सबका निषेध करके स्व निवृत्त हो जाता है और निर्विकल्पक आत्मानुभूति का उदय होता है वास्तव में यह आत्मानुभूति की प्राप्ति ही इस संपूर्ण प्रक्रिया का फल है
(१०) प्रश्न :- यदि निश्चयनय के इन भेदों को स्वीकार कर तो?
उत्तर :- निश्चयनय के इन भेद-प्रभेदों को यदि आप कथंचि अस्वीकार करना चाहते हो तो कोई आपत्ति नहीं, हमें भी इष्ट है उनका कथंचित् निषेध तो हम भी करते ही आए हैं, क्योंकि पूर्व के निषे बिना आगे का नय बनता ही नहीं है। पर यदि आप उनका सर्वथा निषे करना चाहते हैं तो अनेक आपत्तियाँ खड़ी हो जावेगी।