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[ जिनवरस्य नयचक्र
स्थापित किये बिना - स्पष्ट किये बिना वस्तु की स्वतंत्रता, विभिन्नत् एवं स्वायत्तता स्पष्ट नहीं होती । प्रत्येक द्रव्य अपनी अच्छाई-बुराई व उत्तरदायी स्वयं है, अपना भला-बुरा करने में स्वयं समर्थ है और उस लिए पूर्ण स्वतंत्र है - यह स्पष्ट करना ही अशुद्ध निश्चयनय का प्रयोज है । अपने इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए वह राग-द्वेष, सुख-दुख जैस्
प्रिय अवस्थाओं को भी अपनी स्वीकार करता है, उनके कर्तृत्व श्री भोक्तृत्व को भी स्वीकार करता है; उन्हें कर्मकृत या परकृत कहक उनका उत्तरदायित्व दूसरों पर नहीं थोपता ।
प्रत्येक जीव को यह समझाना ही इस नय का प्रयोजन है कि यद्य परपदार्थ और उसके भावों का कर्त्ता भोक्ता या उत्तरदायी यह आत्म नहीं है, तथापि रागादि विकारीभावरूप अपराध स्वय की भूल से स्व में स्वयं हुए हैं; अतः उनका कर्त्ता भोक्ता या उत्तरदायी यह आत्म स्वयं है ।
जब यह आत्मा परद्रव्यो से भिन्न और अपने गुण-पर्यायों से प्रभिन्न अपने को जानने लगा, तब इसे क्रमश: पर्यायों से भी भिन्न त्रिकाली ध्रुव स्वभाव की ओर ले जाने के लक्ष्य से एकदेशशुद्धनिश्चयनय से यह कह कि जो पर्याय पर के लक्ष्य से उत्पन्न हुई, जिसकी उत्पत्ति में कर्मादिव परपदार्थ निमित्त हुए, जो पर्याय दुखस्वरूप है; उसे तू अपनी क्य मानता है ? तेरा आत्मा तो ज्ञान और आनंद पर्याय को उत्पन्न करे ऐसा है । जो पर्याय स्व को विषय बनाये, स्व में लीन हो; वही अपनी ह सकती है । ज्ञानी तो उसी का कर्त्ता-भोक्ता हो सकता है । रागादि विकारं पर्यायों को अपना कहना तो स्वयं को विकारी बनाना है, अज्ञानी बनान है; क्योंकि विकार का कर्त्ता-भोक्ता विकारी ही हो सकता है । ये त अज्ञानमय भाव हैं, इनका कर्त्ता-भोक्ता स्वामी तो अज्ञानी ही हो सकत है। भले ही ये अपने में पैदा हुए हों, पर ये अपने नहीं हो सकते - इसप्रका विकार से हटाने के लिए निर्मलपर्याय से प्रभेद स्थापित किया ।
निर्मलपर्याय से भी अभेद स्थापित करना मूल प्रयोजन नहीं है, मूल प्रयोजन तो त्रिकाली द्रव्यस्वभाव तक ले जाना है, उसमें ही अहंबुदि स्थापित करना है; पर भाई ! एक साथ यह सब कैसे हो सकता है । अतः धीरे-धीरे बात कही जाती है । 'तू तो निर्मलपर्याय का धनी है, कत्त है, भोक्ता है; विकारी पर्याय का नहीं' - यह एकदेशशुद्धनिश्चयनय क कथन एक पड़ाव है, गन्तव्य नही । यह आत्मा एकबार राग को तो अपन मानना छोड़े, फिर निर्मलपर्याय से भी आगे ले जायेंगे । राग तो निषेध