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निश्चयनय : कुछ प्रश्नोत्तर ]
[ ८६ स च संवरशब्दवाच्यः शुद्धोपयोगः संसारकारणभतमिथ्यात्वरागाधशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति तथैव फलभूतकेवलज्ञानलक्षणशुद्धपर्यायवत् शुद्धोऽपि न भवति, किन्तु ताभ्यामशुद्धशुद्धपर्यायाभ्यां विलक्षणं शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकं मोक्षकारणमेकदेशव्यक्तिरूपमेकदेशनिरावरणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते।
शंका :-अशुद्धनिश्चयनय में मिथ्यादष्टि आदि गणस्थानों में (अशुभ, शुभ और शुद्ध ) तोन उपयोगों का व्याख्यान किया; वहाँ अशुद्धनिश्चयनय में शुद्धोपयोग किसप्रकार घटित होता है ?
समाधान :- शुद्धोपयोग में शद्ध, बुद्ध, एकस्वभावी निजात्मा ध्येय होता है। इसकारण शुद्धध्येयवाला होने से, शुद्धअवलंबनवाला होने से और शुद्धात्मस्वरूप का साधक होने से अशुद्धनिश्चयनय में शुद्धोपयोग घटित होता है।
_ 'संवर' शब्द से वाच्य वह शुद्धोपयोग संसार के कारणभूत मिथ्यात्व रागादि अशुद्धपर्याय की भॉति अशुद्ध नहीं होता, उसीप्रकार उसके फलभूत केवलज्ञानरूप शुद्धपर्याय के समान शुद्ध भी नही होता; परन्तु वह शुद्ध और अशुद्ध दोनों पर्यायों से विलक्षण, शुद्धात्मा के अनुभवरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक, मोक्ष का कारणभूत, एकदेशप्रगट, एकदेशनिरावरण - ऐसी तृतीय अवस्थारूप कहलाता है।"
(E) प्रश्न :- 'निश्चयनय अभेद्य है, फिर भी प्रयोजनवश उसके भेद-प्रभेद किये गये हैं।' - इस संदर्भ में प्रश्न यह है कि वह कौनसा प्रयोजन था कि जिसके लिए अभेद्य निश्चयनय के भेद करने पड़े ? आशय यह है कि निश्चयनय के उक्त भेद-प्रभेदों से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ?
उत्तर :- जगत के सपूर्ण जीव अनंत आनंद के कंद और ज्ञान के घनपिण्ड होने पर भी अपने-अपने ज्ञानानंदस्वभावी स्वरूप से अनभिज्ञ रहने के कारण पर और पर्याय में एकत्वबुद्धि धारणकर जन्म-मरण के अनंत-दुख उठा रहे है। पर और पर्याय से पृथक् अपने आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और अनुचरण के अभाव के कारण ही अनंत संसार बन रहा है । इसका अभाव निजशुद्धात्मस्वरूप के परिज्ञान बिना संभव नही है। पर और पर्याय से भिन्न निजशुद्धात्मस्वरूप के परिज्ञान के लिए ही निश्चयनय के ये भेद-प्रभेद किये हैं।
सर्वप्रथम परद्रव्य और उनकी पर्यायों से भिन्नता एवं अपने गुणपर्यायों से अभिन्नता बताना अभीष्ट था; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य की इकाई