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[ जिनवरस्य नयच 'हे योगी! परमार्थ से यह जीव उत्पन्न नहीं होता है, मरता : है, बंध और मोक्ष करता नही है - इसप्रकार जिनेन्द्र कहते है।'
- इस वचन से जीव को बन्ध और मोक्ष नहीं है।
पूर्वोक्त विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनय को आगमभाषा में व कहते हैं ?
जो स्वशुद्धात्मा के सम्यश्रद्धान-ज्ञान-पाचरणरूप होगा, वह 'भव इसप्रकार के 'भव्यत्व' नामक पारिणामिकभाव के साथ संबंधित 'व्यवि कही जाती है। (अर्थात् भव्यत्व पारिणामिकभाव की व्यक्तता अथ प्रगटता कही जाती है) और अध्यात्मभाषा में उसे ही द्रव्यशक्तिरूप शु पारिणामिकभाव की भावना कहते है, अन्य नाम से उसे निर्विकल्पसमा अथवा 'शुद्धोपयोग' आदि कहते है।
(द) अशुद्धनिश्चयनय प्रथम गुणस्थान से बारहव गुणस्थान त वर्तता है । जैसा कि बृहद्व्यसंग्रह की ३४वी गाथा की टीका में कहा है
"मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायपर्यन्तमुपर्युपरि मंदत्वात्तारतम्ये ताववशुद्धनिश्चयो वर्तते ।
मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक ऊपर-ऊर मंदपना होने से तारतम्यता से अशुद्धनिश्चयनय वर्तता है।"
(८) प्रश्न :- साधक के शुद्धोपयोग में तो एकदेशशुद्धनिश्चयन कहा था और यहाँ बारहवें गुणस्थान तक अशुद्धनिश्चयनय बताया जा रा है। क्या शुद्धोपयोग में भी अशुद्धनिश्चयनय घटित होता है ?
उत्तर :- हॉ, होता है, क्योंकि साधक का शुद्धोपयोग क्षयोपशर भावरूप है। क्षयोपशमभाव में एकदेशशुद्धनिश्चयनय एवं प्रशद्धनिश्चयन ऊपर घटित कर ही आये हैं, अतः यहाँ विशेष कथन अपेक्षित नहीं है।
इसीप्रकार का प्रश्न बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ३४ की टीका में : उठाया गया है। वहाँ जो उत्तर दिया गया है उसे उन्हीं की भाषा में देखिये :
"अशुद्धनिश्चयमध्ये मिथ्यादृष्टचाविगुणस्थानेषूपयोगत्रयं व्याल्यार तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगः कथं घटते ?
इति चेत्तत्रोत्तरं- शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्ध कस्वभावो निजात्म ध्येयस्तिष्ठति, तेन कारणेन शुखध्येयत्वाच्छवावलंबनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूप साधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते ।