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निश्चयनय : भेद-प्रभेद ]
[ ७३ निश्चयनय एक प्रकार का ही होता है, अनेक प्रकार का नहीं-इस बात को सिद्ध करते हुए पंचाध्यायीकार लिखते हैं :
"ननु च व्यवहारनयो भवति यथानेक एवं सांशत्वात । अपि निश्चयो नयः किल तद्वदनेकोऽथ चैककस्विति चेत् ॥६५६॥ नैवं यतोऽस्त्यनेको नेकः प्रथमोऽप्यनन्तधर्मत्वात् । न तथेति लक्षरणत्वावस्त्येको निश्चयो हि नानेकः ॥६५७॥ संदृष्टिः कनकत्वं ताम्रोपानिवृत्तितो यादृक् । अपरं तदपरमिह वा रुक्मोपानिवृत्तितस्तादृक् ॥६५८॥ एतेन हतास्ते ये स्वात्मप्रज्ञापराषतः केचित् । प्रप्येकनिश्चयनयमनेकमिति सेवयन्ति यथा ॥६६॥ शुद्धद्रव्याथिक इति स्यादेकः शुद्धनिश्चयो नाम ।। अपरोऽशुद्धद्रव्याथिक इति तदशुद्धनिश्चयो नाम ॥६६०॥ इत्यादिकाश्च बहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते । स हि मिथ्यावृष्टिः स्यात् सर्वज्ञावमानितो नियमात् ॥६६१॥ इदमत्र तु तात्पर्यमधिगन्तव्यं चिदादि यद्वस्तु । व्यवहार निश्चयाभ्यामविरुद्ध यथात्मशुद्धयर्थम् ॥६६२॥ अपि निश्चयस्य नियतं हेतु सामान्यमात्रमिह वस्तु । फलमात्मसिद्धिः स्यात् कर्म कलङ्कावमुक्तबोधात्मा ॥६६३॥'
शंका :-जिसप्रकार व्यवहारनय अनेक हैं, क्योंकि वह सांश हैं; उसीप्रकार निश्चयनय भी एक-एक मिलकर अनेक ही है, यदि ऐसा माना जाए तो क्या आपत्ति है ?
समाधान :- ऐसा नहीं है, क्योंकि अनन्त धर्म होने से व्यवहारनय अनेक हैं, एक नहीं। किन्तु निश्चयनय का लक्षण 'न तथा' है, इसलिए वह एक ही है, अनेक नहीं।
निश्चयनय के एकत्व में दृष्टान्त यह है कि ताम्ररूप उपाधि की निवृत्ति के कारण स्वर्णपना जिसप्रकार अन्य है, चाँदीरूप उपाधि की निवृत्ति के कारण भी वह वैसा ही अन्य है।
इस कथन से उनका निराकरण हो गया, जो अपने ज्ञान के अपराध से निश्चयनय को अनेक प्रकार का मानते हैं। ' पंचाध्यायी, प्र० १, श्लोक ६५६-६६३