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[ जिनवरस्य नयचक्रम् एक शुद्धद्रव्याथिकनय है, उसी का नाम शुद्धनिश्चयनय है और दूसरा अशुद्धद्रव्याथिकनय है, उसका नाम अशुद्धनिश्चयनय है । इत्यादि रूप से जिनके मत में निश्चयनय के बहुत से भेद माने गये हैं, वे सब सर्वज्ञ की आज्ञा उल्लंघन करनेवाले होने से नियम से मिथ्यादृष्टि हैं। ___आशय यह है कि जितने भी जीवादिक पदार्थ है, उनको व्यवहार और निश्चयनय के द्वारा अविरुद्ध रीति से उसीप्रकार समझना चाहिए; जिसप्रकार वे आत्मशुद्धि के लिए उपयोगी हो सकें।
यहाँ पर सामान्यमात्र वस्तु निश्चयनय का हेतु है और कर्मकलंक मे रहित ज्ञानस्वरूप आत्मसिद्धि इसका फल है।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि पंचाध्यायीकार के मतानुसार निश्चयनय के भेद संभव नहीं हैं, क्योंकि उसका विषय सामान्य है। जब सामान्य ही एक है तो उसका ग्राहक नय अनेक प्रकार का कैसे हो सकता है ?
__इस प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए कुछ प्रश्न उपस्थित किये गये थे। उनमें से 'निश्चय के भेद क्यों नहीं हो सकते ?' - इस प्रश्न पर विचार करने के बाद अब 'यदि नहीं हो सकते तो फिर जिनागम में उसके भेद क्यों किरे गये, कहाँ किये गये, कितने किये गये और सर्वज्ञकथित आगम में यह विभिन्नता क्यों है ?' - इन पर विचार अपेक्षित है।
सामान्यतः निश्चयनय के दो भेद किये जाते हैं। जैसा कि पालाप पद्धति में कहा गया है :
"तत्र निश्चयो द्विविधः, शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च । निश्चयनय दो प्रकार का है-शुद्धनिश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय।
शुद्धनिश्चयनय की विषयवस्तु के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के कथा प्राप्त होते हैं। उन कथनों के आधार पर उसके नाम के आगे अनेक प्रका के विशेषण भी लगा दिए जाते हैं। जैसे-परमशुद्धनिश्चयनय, साक्षात शुद्धनिश्चयनय, एकदेशशुद्धनिश्चयनय आदि । मुख्यतः शुद्धनिश्चयनय क कथन तीन रूपों में पाया जाता है। वे तीन रूप इसप्रकार हैं :
(१) परमशुद्धनिश्चयनय (२) शुद्धनिश्चयनय या साक्षात्शुद्धनिश्चयनय (३) एकदेशशुद्धनिश्चयनय ।
यह तीन भेद तो शुद्धनिश्चयनय के हुए और एक अशुद्धनिश्चयन है। इसप्रकार निश्चयनय कुल चार रूपों में पाया जाता है। जिसे आ दर्शाये गये चार्ट द्वारा समझा जा सकता है :