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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
इसप्रकार प्रमारण का विषय सम्पूर्णवस्तु है और नय का विषय वस्तु का एकदेश अर्थात् अंश है ।
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जब सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को सामान्य और विशेष इन भ्रंशों में विभाजित करके समझा जाता है, तो सामान्यांश को विषय करने वाला एक नय होता है और विशेषांश को विषय बनाने वाला दूसरा नय । प्रथम का नाम निश्चयनय है और दूसरे का नाम व्यवहारनय ।
जिनागम में निश्चयनय को अनेक नामों से अभिहित किया गया है; जैसे - शुद्धनय, परमशुद्धनय, परमार्थनय, भूतार्थनय; पर यह अनेक प्रकार का नहीं है । इसके विषयभूत सामान्य के स्वरूप में जो अनेक विशेषताएं हैं, उनकी अपेक्षा ही इसे अनेक नाम दे दिए गए हैं । सामान्य को अभेद, निरुपाधि, द्रव्य, शक्ति, स्वभाव, शुद्धभाव, परमभाव, एक, परमार्थ, निश्चय, ध्रुव, त्रिकाली आदि अनेक नामों से अभिहित किया जाता है ।
सामान्य शुद्धभावरूप होता है, परमभावरूप होता है । अत: उसे विषय बनाने वाले नय को शुद्धनय, परमशुद्धनय कहा जाता है । सामान्य परम-अर्थ अर्थात् परमपदार्थ है । अतः उसे विषय बनाने वाले निश्चयनय को परमार्थनय भी कहा जाता है ।
'सामान्य' ध्रुव द्रव्यांश है और 'विशेष' पर्यायें हैं । इस कारण सामान्य - द्रव्य को विषय बनाने वाले नय को द्रव्यार्थिक एवं विशेष - पर्याय
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को विषय बनाने वाले नय को पर्यायार्थिकनय भी कहते हैं ।
सामान्य एक होता है; अतः उसको विषय बनाने वाला निश्चयनय भी एक ही होता है । पर विशेष अनेक होते हैं, अनेक प्रकार के होते हैं; अतः उन्हें विषय बनाने वाले व्यवहारनय भी अनेक होते हैं, अनेक प्रकार के होते हैं ।
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विशेष के भी पर्याय, भेद, उपाधि, विभाव, विकार आदि अनेक नाम हैं । पर्यायें अनेक होती हैं, अनेक प्रकार की होती हैं; भेद अनेक होते हैं, अनेक प्रकार के होते हैं । इसीप्रकार उपाधि, विकार और विभाव भी अनेक और अनेक प्रकार के होते हैं । अतः उनको विषय बनाने वाल व्यवहारनय भी अनेक प्रकार का हो तो कोई आश्चर्य नहीं । पर एक शुद्ध, त्रिकाली, परमपदार्थ, ध्रुवसामान्य को विषय बनाने वाला निश्चयनय अनेक प्रकार का कैसे हो सकता है ? भले ही उसके अनेक नाम हों, पर वह मात्र एक सामान्यग्राही होने से एक ही है ।