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निश्चयनय : भेद-प्रभेद
निश्चय और व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों की विविधता और विस्तार के चक्रव्यूह में प्रवेश करने के पूर्व जिनेन्द्र भगवान के नयचक्र को चलाने में व समझने में रुचि रखनेवाले ग्रात्मार्थी जिज्ञासुओं से अबतक प्रतिपादित विषय का एक बार पुनरावलोकन कर लेने का सानुरोध आग्रह है । इससे उन्हें भेद-प्रभेदों की बारीकियों को समझने में सरलता रहेगी । अब अवसर आ गया है कि हम सरलता और सरसता का व्यामोह छोड, नयचक्र की चर्चा कुछ अधिक गहराई से करें ।
निश्चयनय यद्यपि अभेद्य है, भेद-प्रभेदों में भेदा जाना उसे सह्य नहीं है, तथापि जिनागम में समझने-समझाने के लिए उसके भी भेद किये गए हैं ।
निश्चयनय के भेद क्यों नहीं हो सकते, यदि नहीं हो सकते तो फिर जिनागम में उसके भेद क्यों किए गए, कहाँ किये गए, कितने किए गए हैं, श्रौर सर्वज्ञ कथित जिनागम में यह विभिन्नता क्यों है ? आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका समाधान विभिन्न कथनों के सकारण समन्वय के रूप में तथा जिनागम के परिप्रेक्ष्य में अपेक्षित है ।
इस षट्-द्रव्यात्मक लोक में अनन्त वस्तुएँ हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, धर्म, आकाश और काल - इन छह द्रव्यों में जीवद्रव्य अनन्त हैं, जीवों से अनन्तगुणे अनन्त अर्थात् अनन्तानन्त पुद्गल हैं । धर्म, अधर्म और प्राकाश द्रव्य एक-एक हैं तथा कालद्रव्य प्रसंख्यात हैं। छह तो द्रव्यों के प्रकार हैं, सब मिलाकर द्रव्य अनन्तानन्त हैं । वे अनन्तानन्त द्रव्य ही लोक की अनन्त वस्तुएँ हैं । वे सभी वस्तुएँ सामान्य विशेषात्मक हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि जगत की प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है ।
ये सामान्य-विशेषात्मक वस्तुएँ ही प्रमाण की विषय हैं अर्थात् प्रमेय हैं, ज्ञान की विषय हैं अर्थात् ज्ञेय हैं' । इन्हें सम्यक् जाननेवाला ज्ञान ही प्रमाण है । सम्यग्ज्ञान प्रमाण है और नय प्रमाण का एकदेश है - यह बात स्पष्ट की ही जा चुकी है ।
१ सामान्य-विशेषात्मातदर्थो विषय: । परीक्षामुख, प्र० ४, सूत्र १ २ सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं । न्यायदीपिका, प्र० १, पृष्ठ ६