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[ जिनवरस्य नयचक्रम् आप कह सकते हैं कि आपको इनका इतना अधिक रस क्यों है ? पर भाईसाहब! जब जो प्रकरण चलता हो तब उसके अध्ययन की प्रेरणा देना तो लेखक का तथा वक्ता का कर्तव्य है, इसमें अधिक रस होने की बात कहाँ है ? हो भी तो समयसार का सार समझने-समझाने के लिए ही तो है। नयों का रस नयपक्षातीत होने के लिए है, नयों में उलझनेउलझाने के लिए नहीं। अधिक क्या? समझनेवालों के लिए इतना ही पर्याप्त है।
अब यहां निश्चय-व्यवहार के भेद-प्रभेदों की चर्चा प्रसंग प्राप्त है ।
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अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वराः देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमर्वति यस्तस्य देशना नास्ति ॥६॥ मारणवक एव सिंहो यया भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥७॥ व्यवहारनिश्चयो यःप्रबुध्यतत्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः॥८॥
आचार्यदेव प्रज्ञानीजीवों को ज्ञान उत्पन्न करने के लिए प्रभूतार्थ व्यवहारनय का उपदेश देते हैं, परन्तु जो केवल व्यवहारनय ही का श्रद्धान करता है, उसके लिए उपदेश नहीं है।
जिसप्रकार जिसने यथार्थ सिंह को नहीं जाना है, उसके लिए बिलाव (बिल्ली) ही सिंहरूप होता है; उसीप्रकार जिसने निश्चय का स्वरूप नहीं जाना है, उसका व्यवहार ही निश्चयता को प्राप्त हो जाता है।
जो जीव व्यवहारनय और निश्चयनय के स्वरूप को यथार्थरूप से जानकर पक्षपातरहित होता है, वही शिष्य उपदेश का सम्पूर्णफल प्राप्त करता है।
-पुरुषार्षसिडयुपाय, श्लोक ६-७-८