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[ जिनवरस्य नयनकम इसका माश्रय लेने से सम्यक्दृष्टि हो सकता है। इसे जाने बिना जबतक जीव व्यवहार में मग्न है तबतक प्रात्मा का ज्ञान-श्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व नहीं हो सकता।'-ऐसा माशय समझना चाहिए।"
यद्यपि यहाँ निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय के निषेध की ही चर्चा की गई है तथापि शुद्धस्वरूप की प्राप्ति के काल में तो निश्चयनय के विकल्प (पक्ष) का भी प्रभाव हो जाता है, क्योंकि शुद्धात्मा की प्राप्ति नयपक्षरूप विकल्पों में उलझे व्यक्ति को नहीं, पक्षातीत -विकल्पातीत व्यक्ति को होती है।
व्यवहारनय के निषेध के बाद निश्चयनय का पक्ष (विकल्प) भी विलय को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि जबतक नयरूप विकल्प (पक्ष) रहता है, तब तक निर्विकल्प अनुभूति प्रगट नहीं होती।
समयसार की कथनशैली की चर्चा करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं :
"इस ग्रंथ में पहले से ही व्यवहारनय को गौरण करके और शुद्धनय को मुख्य करके कथन किया गया है। चैतन्य के परिणाम परनिमित्त से भनेक होते हैं, उन सबको आचार्यदेव पहले से ही गौण कहते आये हैं और उन्होंने जीव को शुद्ध चैतन्यमात्र कहा है। इसप्रकार जीवपदार्थ को शुद्ध नित्य, प्रभेद, चैतन्यमात्र स्थापित करके प्रब कहते हैं कि जो इस शुद्धनय का भी पक्षपात (विकल्प) करेगा, वह भी उस शुद्धस्वरूप के स्वाद के प्राप्त नहीं करेगा।
प्रशुद्धनय की तो बात ही क्या है ? किन्तु यदि कोई शुद्धनय का में पक्षपात करेगा तो पक्ष का राग नहीं मिटेगा, इसलिए वीतरागता प्रगत नहीं होगी। पक्षपात को छोड़कर चिन्मात्रस्वरूप में लीन होने पर है समयसार को प्राप्त किया जाता है।
इसलिए शुद्धनय को जानकर, उसका भी पक्षपात छोड़कर, शुद्ध स्वरूप का अनुभव करके, स्वरूप में प्रवत्तिरूप चारित्र प्राप्त करके वीतराग दशा प्राप्त करना चाहिए।""
ध्यान रहे यहाँ पक्ष या पक्षपात का अर्थ विकल्प है। नय का पक्ष छोड़ने का अर्थ नयसम्बन्धी विकल्प को तोड़ना है। वस्तु नयपक्षातीत अर्थात् विकल्पातीत है - यह समझना चाहिए ।
समयसार कलश ७० का भावार्थ