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निश्चय और व्यवहार ]
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समयसार की १४२वीं गाथा में आत्मा को पक्षातिक्रान्त कहा गया है । उसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं :
" जीव में कर्म बद्ध है' ऐसा जो विकल्प तथा 'जीव में कर्म श्रबद्ध है' ऐसा जो विकल्प वे दोनों नयपक्ष हैं । जो उस नयपक्ष का अतिक्रम करता है ( उसे उल्लंघन कर देता है, छोड देता है), वही समस्त विकल्पों का प्रतिक्रम करके स्वयं निर्विकल्प, एक विज्ञानघनस्वभावरूप होकर साक्षात् समयसार होता है । यहीं (विशेष समझाया जाता है कि ) जो 'जीव में कर्मबद्ध है' ऐसा विकल्प करता है वह 'जीव में कर्म अबद्ध है' ऐसे एक पक्ष का अतिक्रम करता हुआ भी विकल्प का प्रतिक्रम नहीं करता, और जो 'जीव में कर्म श्रबद्ध है' ऐसा विकल्प करता है वह भी 'जीव में कर्म बद्ध है' ऐसे एक पक्ष का अतिक्रम करता हुआ भी विकल्प का अतिक्रम नहीं करता ; और जो यह विकल्प करता है कि 'जीव में कर्म बद्ध है और अबद्ध भी है' वह दोनों पक्षों का अतिक्रम न करता हुआ, विकल्प का अतिक्रम नहीं करता । इसलिए जो समस्त नयपक्ष का प्रतिक्रम करता है, वही समस्त विकल्प का प्रतिक्रम करता है; जो समस्त विकल्प का प्रतिक्रम करता है, वही समयसार को प्राप्त करता है - उसका अनुभव करता है ।
भावार्थ :- 'जीव कर्म से बंधा हुआ है' तथा ' नहीं बंधा हुआ है' यह दोनों नयपक्ष हैं । उनमें से किसी ने बन्धपक्ष ग्रहण किया, उसने विकल्प ही ग्रहरण किया; किसी ने प्रबन्ध पक्ष लिया, तो उसने भी विकल्प ही ग्रहण किया; और किसी ने दोनों पक्ष लिये तो उसने भी पक्ष रूप विकल्प का ही ग्रहण किया । परन्तु ऐसे विकल्पों को छोड़कर जो कोई भी पक्ष को ग्रहरण नहीं करता, वही शुद्धपदार्थ का स्वरूप जानकर उसरूप समयसार को - शुद्धात्मा को प्राप्त करता है । नयपक्ष को ग्रहण करना राग है, इसलिए समस्त नयपक्ष को छोड़ने से वीतराग समयसार हुआ जाता है ।"
इसके तत्काल बाद ६६ वें कलश में वे कहते हैं :"य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं
स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यम् ।
विकल्पजालच्युतशांतचिता -
स्त एव साक्षादमृतं पिबंति ।।
जो नयपक्षपात को छोड़कर सदा स्वरूप में गुप्त होकर निवास करते हैं और जिनका चित्त विकल्पजाल से रहित शान्त हो गया है, वे ही साक्षात् प्रमृत का पान करते हैं ।