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________________ निश्चय और व्यवहार ] [ ५५ के लिए व्यवहार को अपनाना होगा और निश्चय को पाने के लिए व्यवहार को छोड़ना भी होगा। किन्तु ध्यान रहे कहीं ऐसा न हो कि नाव के उसपार पहुंचे बिना ही पाप नाव को छोड़ दें, नाव से उतर जावें- यदि ऐसा हुआ तो समझिये नदी की धार में बहकर समुद्र में पहुंच जावेंगे। उसीप्रकार यदि व्यवहार द्वारा वस्तु का पूर्ण निर्णय किये बिना ही, निश्चय के किनारे पर पहुंचे बिना ही, यदि आपने उसे छोड़ दिया तो निश्चय की प्राप्ति तो होगी नहीं, व्यवहार से भी भ्रष्ट हो जावेंगे और संसार-समुद्र में डूबने के अतिरिक्त कोई राह न रहेगी। अतः व्यवहार कब छोड़ना ? इसका ध्यान रखना बहुत जरूरी है। तथा कहीं हम व्यवहार को प्रस्थान में ही न छोड़ दें- इस भय से, 'वह छोड़ने योग्य है' - यह समझने के लिए तैयार ही नहीं होना भी कम मूर्खता नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में व्यवहार का निषेध ही है स्वभाव जिसका, ऐसे निश्चय का स्वरूप न समझ पाने के कारण उसके विषयभूत अर्थ की प्राप्ति कसे होगी? जिनवाणी में जो निश्चय-व्यवहार में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक और व्यवहार-निश्चय में निषेध्य-निषेधक सम्बन्ध बताया गया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और मार्मिक है, उसमें कोई विरोधाभास नहीं है। अतः उसके मर्म को गहराई से समझने का यत्न किया जाना चाहिए। यद्यपि प्रभूतार्थ होने पर भी निश्चय का प्रतिपादक होने से व्यवहार को जिनवाणी में स्थान प्राप्त हो गया है; तथापि प्रभूतार्थ होने से उसका फल संसार ही है। यही कारण है कि निश्चय उसका निर्दयता से निषेध करता है। पण्डितप्रवर जयचन्दजी छाबड़ा शुद्धनय के उपदेश की प्रधानता का प्रौचित्य सिद्ध करते हुए समयसार गाथा ११ के भावार्थ में लिखते हैं : "प्राणियों को भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो प्रनादिकाल से ही है और इसका उपदेश भी बहुधा सर्वप्राणी परस्पर करते हैं, और जिनवारणी में व्यवहार का उपदेश शुद्धनय का हस्तावलम्बन (सहायक) जानकर बहुत किया है; किन्तु उसका फल संसार ही है। शुद्धनय का पक्ष तो कभी प्राया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है- वह कहीं-कहीं पाया जाता है । इसलिए उपकारी श्रीगुरु ने शुद्धनय के ग्रहण का फल मोक्ष जानकर उसका उपदेश प्रधानता से दिया है कि 'शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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