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________________ ४० ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् " प्रश्न :- • यदि केवली भगवान व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं तो व्यवहारनय से ही उन्हें सर्वशत्व भी होम्रो परन्तु निश्चयनय से नहीं ? उत्तर :- जिसप्रकार तन्मय होकर स्वकीय भ्रात्मा को जानते हैं, उसी प्रकार परद्रव्य को तन्मय होकर नहीं जानते, इसकारण व्यवहार कहा गया है, न कि उनके परिज्ञान का ही प्रभाव होने के कारण । यदि स्वद्रव्य की भाँति परद्रव्य को भी निश्चय से तन्मय होकर जानते तो परकीय सुख व दुःख को जानने से स्वयं सुखी-दुःखी श्रौर परकीय राग-द्वेष को जानने से स्वयं रागी-द्वेषी हो गये होते और इसप्रकार महत् दूषण प्राप्त होता ।" इस सन्दर्भ में प्राचार्य जयसेन का कथन भी मननीय है, जो कि इसप्रकार है : "प्रश्न :- सौगतमतवाले ( बौद्धजन ) भी सर्वज्ञपना व्यवहार से मानते हैं, तब भाप उनको दूषरण क्यों देते हैं ? क्योंकि जैनमत में भी परपदार्थों का जानना व्यवहारनय से कहा जाता है । उत्तर :- इसका परिहार करते हैं - सोगत श्रादि मतों में, जिसप्रकार निश्चय की अपेक्षा व्यवहार झूठ है, उसीप्रकार व्यवहाररूप से भी वह सत्य नहीं है । परन्तु जैनमत में व्यवहारनय यद्यपि निश्चय की अपेक्षा मृषा (झूठ ) है, तथापि व्यवहाररूप से वह सत्य है । यदि लोकव्यवहाररूप से भी उसे सत्य न माना जाए तो सभी लोकव्यवहार मिथ्या हो जाएगा; नौर ऐसा होने पर अतिप्रसंग दोष श्रायेगा । इसलिए प्रात्मा व्यवहार से परद्रव्य को जानता देखता है, पर निश्चयनय से केवल आत्मा को ही ।"" तथा आत्मा और शरीर को एक बतानेवाले व्यवहार कथन का प्रयोजन यह रहा है कि जगत शरीर के संयोग में रहे जीव को भी जाने, अन्यथा निर्जीव भस्म की भांति सजीव शरीर को भी मसल देगा । जीवों को द्रव्य हिंसा से बचाना - इस कथन का उद्देश्य रहा है । जैसाकि श्रात्मख्याति में कहा गया है : "परन्तु यदि व्यवहारनय न बताया जाये तो परमार्थ से ( निश्चयनय से) शरीर से जीव को भिन्न बताया जाने पर जसे भस्म को मसल देने से हिंसा का प्रभाव है; उसीप्रकार त्रस स्थावर जीवों को निःशंकतया मसल देने - कुचल देने ( घात करने) में भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बंध का ही अभाव सिद्ध होगा । " ३ १ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृष्ठ ५६३ २ समयसार. गाथा ४६ की टीका
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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