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________________ निश्चय और व्यवहार ] [३६ व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ माननेवालों को नियमसार के उस कथन की ओर ध्यान देना चाहिए जिसमें यह कहा है कि सर्वज्ञ भगवान पर को व्यवहार से जानते हैं।' व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ मानने पर केवली भगवान का पर को जानना असत्यार्थ ठहरेगा और सर्वमान्य सर्वज्ञता ही संकट में पड़ जावेगी। इसीप्रकार व्यवहार को सर्वथा सत्य माननेवालों को भी समयसार के उस कथन की ओर ध्यान देना चाहिए जिसमें व्यवहारनय से जीव और शरीर को एक कहा गया है। यदि जीव और शरीर को एक कहनेवाले कथन को प्रयोजनवश किया गया कथन न मानकर सवथा सत्य मान लिया जाए तो मिथ्यात्व हुए बिना नहीं रहेगा। छहढाला में तो देह और आत्मा को एक मानने वाले को स्पष्टरूप से मिथ्यादृष्टि लिखा है : __ "देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्व मुषा है। देह और जीव को एक माननेवाला बहिरात्मा है, वह तत्त्व के बारे में मूर्ख है अर्थात् मिथ्यादृष्टि है।" अतः यह जानना चाहिए कि व्यवहारनय के उक्त दोनों ही कथन प्रयोजनवश किये गए सापेक्ष कथन हैं, अतः कथंचित् सत्यार्थ और कथंचित् असत्यार्य हैं। यहां एक प्रश्न संभव है कि वह कौनसा प्रयोजन आ पड़ा था कि व्यवहारनय को ऐसी असंबद्ध बातें कहनी पड़ीं। इनमें असंबद्धता इसकारण प्रतीत होती है कि एक कथन तो सर्वज्ञता पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है और दूसरा कथन शरीर और आत्मा को एक बतानेवाला होने से मिथ्यात्व का पोषक प्रतीत होता है। केवली भगवान का पर को जानना व्यवहार है, इस कथन का प्रयोजन तो यह बताना रहा है कि केवली भगवान जिसप्रकार स्वयं को स्वयं में लीन होकर जानते हैं, उसप्रकार पर को उसमें लीन होकर नहीं जानते । उसे मात्र जानते हैं, उसमें लीन नहीं होते। जैसा कि परमात्मप्रकाश (अध्याय १, गाथा ५२ की टीका) में स्पष्ट किया गया है :१ नियमसार, गाथा १५६ २ समयसार, गाथा २७ ' छहढाला, दूसरी ढाल
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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