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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
जैसा वेदान्त मतवाले भेदरूप अनित्य को देखकर भवस्तु मायास्वरूप कहते हैं और सर्वव्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्म को वस्तु कहते हैं, ऐसा ठहरे तथा इससे सर्वथा एकान्त शुद्धनय के पक्षरूप मिथ्यादृष्टि का ही प्रसङ्ग प्राप्त होगा ।" "
"माटी के घड़े को घी का घड़ा कहना व्यवहार है - इसलिए व्यवहार झूठा है; क्योंकि घड़ा घी-मय नहीं है, किन्तु माटी - मय है । उसीप्रकार द्रव्य को निश्चय और पर्याय को व्यवहार- और यह व्यवहार घी के घड़े की भांति झूठा है - ऐसा नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार घड़ा घी-मय नहीं है, उसीप्रकार पर्याय हो ही नहीं - यह बात नहीं है । पर्याय अस्तिरूप है । पर्याय को व्यवहार कहा है, पर वह नहीं हो - यह बात नहीं है । रागपर्याय असद्भूतव्यवहारनय का विषय है। इन पर्यायों को प्रभूतार्थं कहा है, इसकारण वे पर्यायें हैं ही नहीं, घी के घड़े के समान झूठी हैं - ऐसा नहीं है । क्षायिक आदि चार भावों को परद्रव्य और परभाव कहा, इससे वे पर्यायें हैं ही नहीं, झूठी हैं - ऐसा नहीं है । घड़ा कुम्हार ने बनाया है ऐसा कहना जैसे झूठा है, उसीप्रकार अशुद्ध पर्यायों को व्यवहार कहा; अतः वे पर्यायें भी झूठी हैं- ऐसा नहीं है । जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि पर्यायनय के विषय हैं; भ्रतः वे व्यवहारनय से भूतार्थ हैं । पर्याय नहीं है - ऐसा नहीं है ।
द्रव्यार्थिकनय से पर्याय को प्रभूतार्थं कहा; प्रतः पर्यायें हैं ही नहीं - ऐसा नहीं है । किन्तु निश्चय की मुख्यता से पर्याय को गौरण करके व्यवहार कहकर वहाँ से दृष्टि हटाने के प्रयोजन से उन्हें प्रसत्यार्थ कहा है । इससे ऐसा मानना कि पर्यायें हैं ही नहीं, ठीक नहीं है । जिसप्रकार 'घी का घड़ा' वाला व्यवहार झूठा है, उसीप्रकार सभी व्यवहार झूठा है - यह मानना ठीक नहीं है । नयों का कथन जहाँ जैसा हो वहीं वैसा समझना चाहिए । यदि ठीक तरह से न समझोगे तो विपरीतता हो जावेगी ।" "
समयसार की १४वीं गाथा की टीका में भी व्यवहारनय के विषय बद्धस्पृष्टादि भावों को व्यवहार से भूतार्थं प्रौर निश्चय से प्रभूतार्थ कहा गया है । तात्पर्य यह है कि व्यवहार को सर्वथा प्रसत्यार्थ न कहकर कथंचित् सत्यार्थं कहा है ।
१ प्रवचन रत्नाकर भाग १ (हिन्दी), पृष्ठ १४७
१ प्रात्मधर्म गजराती, वर्ष ३६, अंक ३ (४३१), पृष्ठ १३