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निश्चय और व्यवहार ]
[४१ यदि व्यवहारनय कथंचित् भूताथ है और कथंचित् अभूतार्थ, तो फिर निश्चय-व्यवहार की परिभाषाओं में भूतार्थ को निश्चय और अभूतार्थ को व्यवहार क्यों कहा गया है ?
इसका कारण भी एक प्रयोजनविशेष रहा है और वह यह कि निश्चयनय के आश्रय से मक्ति की प्राप्ति होती है और व्यवहारनय के
आश्रय से नहीं । जिसके आश्रय से मुक्ति हो, वह भूतार्थ और जिसके प्राश्रय से मुक्ति न हो, वह अभूतार्थ है। निश्चय को भूतार्थ और व्यवहार को अभूतार्थ कहने में यही दृष्टि रही है। जिनवाणी में व्यवहारनय को स्थान तो इसलिए प्राप्त हुआ है कि वह किन्हीं-किन्हीं को और कभी-कभी प्रयोजनवान होता है और अभूतार्थ इसलिए कहा गया है कि उसके आश्रय से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती।
प्राचार्य जयसेन ने समयसार की ११वीं गाथा के अर्थ में भी व्यवहारनय को भूतार्थ और प्रभूतार्थ कहा है। उन्होंने उक्त गाथा का अर्थ दो प्रकार से किया है । दूसरा अर्थ इसप्रकार है :
"दूसरे व्याख्यान से व्यवहारनय प्रभूतार्थ है और भूतार्थ भी कहा गया है । मात्र व्यवहारनय दो प्रकार का नहीं कहा गया है अपितु 'दु' शब्द से निश्चयनय भी दो प्रकार का जानना चाहिए । भूतार्थ और प्रभूतार्थ के भेद से व्यवहारनय दो प्रकार का है और शुद्धनिश्चय और प्रशुद्धनिश्चय के भेद से निश्चयनय भी दो प्रकार का हुआ - इसप्रकार चार नय हुए।"
यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्राचार्य जयसेन, प्राचाय अमृतचन्द्र द्वारा किये गए अर्थ को, जिसमें कि निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा गया है, मुख्यरूप से स्वीकार कर रहे हैं। साथ ही दूसरे व्याख्यान से अर्थात् दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि कहकर उक्त प्रर्थ करते हैं।
दूसरे ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि वे व्यवहार के तो भूतार्थप्रभूतार्थ भेद करते हैं, पर निश्चय के भूतार्थ-अभूतार्थ भेद न करके शुद्धअशुद्ध भेद करते हैं। इससे निश्चयनय को अभूतार्थ कहने में जो संकोच उन्हें हुमा है, वह स्पष्ट हो जाता है।
यदि निश्चय के भूतार्थ-अभूतार्थ भेद भी किये जाते तो भी कोई विरोध नहीं पाता, क्योंकि अध्यात्म में मशुद्धनय को व्यवहार भी कहा है। इसकारण शुद्धनिश्चय अर्थात् निश्चय भूतार्थ और अशुद्धनिश्चय अर्थात् व्यवहार ही प्रभूतार्थ प्रतिफलित होता।