________________
१५६ ]
[ जिनवरस्य नयचक्रम् कुछ अन्य दुर्मति मिथ्यादृष्टि जीव इसप्रकार मिथ्याबात करते हैं कि जो परपदार्थ जीव के साथ बंधा हुआ नहीं है, उसका भी जीव कर्ता-भोक्ता है।
जैसे-सातावेदनीय के उदय में निमित्त हुए घर, धन, धान्य, स्त्री और पुत्र आदिक भावों का यह जीव ही स्वयं कर्ता है और यह जीव ही उनका भोक्ता है।
शंका:- यह बात हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि घर और स्त्री आदि के रहने पर प्राणियों को सुख होता है और उनके अभाव में सुख नहीं होता है, इसलिए यह जीव ही उनका कर्ता है और यह जीव ही उनका भोक्ता है- यदि ऐसा माना जाय तो क्या आपत्ति है ?
समाधान :- यह कहना ठीक है तो भी यह वैषयिक सुख पर होता हुप्रा भी पर की अपेक्षा से उत्पन्न नहीं होता है; क्योंकि धन, स्त्री आदि परपदार्थों के रहने पर भी वे किन्हीं के लिए ही दुख के कारण देखे जाते हैं । अतः घर, स्त्री आदि का कर्ता और भोक्ता जीव को मानना उचित नहीं है।"
चौथे नयाभास का स्वरूप पंचाध्यायी के अनुसार इसप्रकार है :"अयमपि च नयाभासो भवति मिथो बोध्यबोधसंबंधः । ज्ञानं ज्ञेयगतं वा ज्ञानगतं ज्ञेयमेतदेव यथा ॥५८५॥ चक्ष रूपं पश्यति रूपगतं तन्न चक्षरेव यथा । ज्ञानं ज्ञेयमवैति च ज्ञेयगतं वा न भवति तज्ज्ञानम् ॥५८६॥'
ज्ञान और ज्ञेय का जो परस्पर बोध्य-बोधक संबंध है, उसके कारण ज्ञान को ज्ञेयगत और ज्ञेय को ज्ञानगत मानना भी नयाभास है।
__ क्योंकि जिसप्रकार चक्षु रूप को देखता है, तथापि वह रूप में चला नहीं जाता, किन्तु चक्ष ही रहता है । उसीप्रकार ज्ञान ज्ञेय को जानता है, तथापि वह ज्ञेयरूप नहीं हो जाता, किन्तु ज्ञान ही रहता है।"
__ पंचाध्यायी में निरूपित उक्त चार नयाभासों के स्वरूप और विषयवस्तु पर सम्यक् दृष्टिपात करने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि अन्यत्र जो विषय अनुपचरित और उपचरित असद्भूतव्यवहारनय के बताए गये हैं, उन्हें ही पंचाध्यायी में चार नयाभासों में विभाजित कर दिया गया है। अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के विषय को लेकर प्रथम, द्वितीय व १ पंचाध्यागी, अ० १, श्लोक ५८५-५८६