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पंचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के भेद-प्रभेद ]
[ १५७ चतुर्थ नयाभास तथा उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय को लेकर तृतीय नयाभास निरूपित है ।
प्रथम नयाभास में संश्लेषसहित पदार्थों के एकत्व को तथा दूसरे नयाभास में उन्ही के कर्ता-कर्म संबंध को ग्रहण किया गया है । तीसरे नयाभास में संश्लेषरहित पदार्थों के कर्तृत्व को ग्रहण किया गया है, तथा चौथा नयाभास बोध्य-बोधक सबंध को लेकर बताया गया है । बोध्यबोधक संबंध को अन्यत्र अनुपचारित-प्रसद्भूतव्यवहारनय मे लिया गया है ।
इसप्रकार प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ नयाभास अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय के विषय को लेकर एवं तृतीय नयाभास उपचरितत-प्रसद्भूतव्यवहारनय के विषय को लेकर कहे गये है ।
इसप्रकार हम देखते है कि व्यवहारनय और उनके भेद-प्रभेदों के स्वरूप तथा विषयवस्तु के संबंध में जिनवाणी में दो शैलियाँ प्राप्त होती है, जिन्हें हम अपनी सुविधा के लिए निम्नलिखित नामो से अभिहित कर सकते है -
(१) नयचक्रादि ग्रंथो मे प्राप्त शैली (२) पचाध्यायी मे प्राप्त शैली
इसीप्रकार की विभिन्नता निश्चयनय के सबध मे भी पाई जाती है, जिसकी चर्चा पहले की ही जा चुकी है। दोनो ही प्रसंगों पर पचाध्यायीकार अपनी बात को संयुक्तिक प्रस्तुत करते हुए भिन्न मत रखनेवालों के प्रति दुर्मति, मिध्यादृष्टि आदि शब्दो का प्रयोग करते दिखाई देते है । जहाँ एक ओर वे निश्चयनय के भेद माननेवालों को मिथ्यादृष्टि घोषित करते हैं, वहीं दूसरी ओर संश्लेशसहित और संश्लेशरहित सबधो को अनुपचरित और उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय का विषय माननेवालो को भी वे उसी श्रेणी में रखते दिखाई देते है ।
जिसप्रकार तर्क-वितर्कपूर्वक उन्होने अपने विषय को प्रस्तुत किया है, उससे यह प्रतीत तो नही होता कि अपरपक्ष से वे अपरिचित थे । जिन तर्कों के आधार पर जिनागम में ही अन्यत्र अपरपक्ष प्रस्तुत किया गया है, उन तर्कों को वे स्वयं उठा-उठाकर उनका समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास करते दिखाई देते है । जबकि प्रथमशैलीवाले दूसरी शैली की श्रालोचना तो दूर, चर्चा तक नहीं करते है ।
उक्त सन्दर्भ में दोनों ही शैलियों की तुलनात्मक रूप से सन्तुलित चर्चा अपेक्षित है |