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पंचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के भेद-प्रभेद ]
[ १५५ अथ चेद् घटकर्ताऽसौ घटकारो जनपदोक्तिलेशोऽयम् । दुर्वारो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभासः ॥५७६॥'
मूर्तद्रव्य के जो कर्म और नोकर्मरूप कार्य होते है, उनका यह जीव कर्ता और भोक्ता है - ऐसा कथन करना दूसरा नयाभास है।
जीव को कर्म और नोकर्म का कर्ता और भोक्ता माननेरूप व्यवहार सिद्धान्तविरुद्ध होने से इस नय को नयाभास मानना प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि जब कर्म, नोकर्म और जीव भिन्न-भिन्न है, तब फिर उनमें किस प्रमाण के आधार से गुणसंक्रम बन सकेगा?
यदि गुणसंक्रम के बिना ही जीव कर्म का कर्ता और भोक्ता माना जाता है, तो मर्वपदार्थो मे सर्वसंकरदोष और सर्वशून्यदोष प्राप्त होता है।
जीव की अशुद्धपरिणति के निमित्त से मूर्तद्रव्य स्वयं ही कर्मरूप से परिणम जाता है, यही इस विषय में भ्रम का कारण है ।
किन्तु इसका यह समाधान है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव का ही कर्ता है, परभाव निमित्तमात्र होने पर भी उसका कर्ता-भोक्ता नही हो मकता।
यदि यह कहा जाय कि कुम्हार घट का कर्ता है - यह लोकव्यवहार होता है, इसे कैसे रोका जा सकता है ? सो इस पर यह कहना है कि यदि ऐसा व्यवहार होता है तो होने दो, इससे हमारी क्या हानि है अर्थात् कुछ भी हानि नही है, क्योकि यह लोकव्यवहार नयाभास है।"
तीसरे नयाभास का स्वरूप पचाध्यायी में इसप्रकार दिया गया है - "अपरे बहिरात्मानो मिथ्यावादं वदन्ति दुर्मतयः। यदबद्धेऽपि परस्मिन् कर्ता भोक्ता परोऽपि भवति यथा ॥५८०॥ सवेद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च । स्वयमिह करोति जीवो भुनक्ति वा स एव जीवश्च ॥५१॥ ननु सति गृहवनितादौ भवति सुखं प्राणिनामिहाध्यक्षात्। असति च तत्र न तदिदं तत्तत्कर्ता स एव तभोक्ता ॥५८२॥ सत्यं वैषयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सापेक्षम् ।
सति बहिरर्थेऽपि यतः किल केषाञ्चिवसुखाविहेतुत्वात् ॥५८३॥ ' पंचाध्यायी, अ० १, श्लोक ५७६ २ वही, अ० १, श्लोक ५८०-५८३