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[ जिनवरस्य नयचक्रम् अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा। अर्थः स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ॥५४१॥ प्रसदपि लक्षणमेतत्सन्मात्रत्वे सुनिर्विकल्पत्वात् । तदपि न विनावलम्बानिविषयं शक्यते वक्तुम ॥५४२॥ तस्मादनन्यशरणं सवपि ज्ञानं स्वरूपसिद्धत्वात् । उपचरितं हेतुवशात् तदिह ज्ञानं तदन्यशरणमिव ॥५४३॥'
हेतूवश स्वगुण का पररूप से अविरोधपूर्वक उपचार करना उपचरितसद्भूतव्यवहारनय है।
जैसे अर्थविकल्पात्मकज्ञान प्रमाण है, यह प्रमाण का लक्षण है । यह उपचरितसद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण है। स्व-परसमुदाय का नाम अर्थ है और ज्ञान का उसरूप होना ही विकल्प है।
सत्सामान्य निर्विकल्पक होने के कारण, उसकी अपेक्षा यद्यपि यह लक्षण असत् है, तथापि पालम्बन के बिना विषयरहित ज्ञान का कथन करना शक्य नहीं है।
___ इसलिए यद्यपि ज्ञान दूसरों की अपेक्षा किए बिना ही स्वरूपसिद्ध होने से सदरूप है, तथापि हेतु के वश से यहाँ उसका दूसरे की अपेक्षा से उपचार किया जाता है।"
पंचाध्यायीकार के उक्त कथन की आगम के अन्य कथनो से तुलना करते हुए पंडित देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री दोनों कथनों के अन्तर को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं :
"अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय के विषय में तीनों ग्रन्थों के दृष्टिकोण में प्रायः अन्तर है। अनगारधर्मामत और पालापपद्धति में यह बतलाया है कि जिस वस्तु का जो शुद्धगुण है, उसको उसीका बतलाना शुद्धसद्भूतव्यवहारनय है। अनगारधर्मामृत में इस नय का उदाहरण देते हुए लिखा है कि केवलज्ञान आदि को जीव का कहना शुद्धसद्भूतव्यवहारनय है।
तथा पंचाध्यायी में यह दृष्टिकोण लिया गया है कि जिसद्रव्य की जो शक्ति है, विशेष की अपेक्षा किए बिना सामान्यरूप से उसे उसी द्रव्य की बताना अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय है। पंचाध्यायी के इस लक्षण के अनुसार 'ज्ञान जीव का है' - यह अनपचरितसद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण ठहरता है। 'पंचाध्यायी, प्र० १, श्लोक ५४०-५४३