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पंचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के भेद-प्रभेद ]
[ १४७ बात यह है कि अनगारधर्मामृत और पालापपद्धति में शुद्धता और अशुद्धता का विभाग करके इस नय का कथन किया गया है। किन्तु पंचाध्यायी में ऐसा विभाग करना इष्ट नहीं है। वहाँ यद्यपि उपाधि का त्याग इष्ट है, परन्तु यह कथन सब प्रकार से निरुपाधि होना चाहिए । ज्ञान के साथ 'केवल' पद लगाना यह भी एक उपाधि है । अतः 'केवलज्ञान जीव का है', ऐसा न कहकर 'ज्ञान जीव का है' ऐसा कथन करना ही अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय है - यह पंचाध्यायीकार का अभिप्राय है।'
यहाँ 'अर्थ विकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण है' - ऐसा कहना उपचरितसद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण बतलाया है। इस उदाहरण के अनुसार 'ज्ञान प्रमाण है' इतना तो सद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण ठहरता है और उसे अर्थविकल्पात्मक कहना यह उपचार ठहरता है।
यद्यपि ज्ञान स्वरूपसिद्ध है, तथापि उसे अर्थविकल्पात्मक बतलाया जाता है। इसलिए यह उपचरितसद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण हुआ। अनगारधर्मामृत में 'मतिज्ञान आदि जीव के हैं -' यह उपचरितसद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण दिया है। वहाँ उपचार का कारण अशुद्धता ली गई है, जबकि पंचाध्यायी में इसका कारण निजगुरण का पररूप से कथन करना लिया गया है।
इसप्रकार इन दोनों विवेचनों में क्या अन्तर है - यह स्पष्ट हो जाता है।"
अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का स्वरूप और विषयवस्तु पंचाध्यायी में इसप्रकार दी गई है :
"अपि वाऽसद्भूतो योऽनुपचरिताख्यो नयः स भवति यथा। क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवाः ॥५४६॥ कारणमिह यस्य सतो या शक्तिः स्याद् विभावभावमयी। उपयोगदशाविष्टा सा शक्तिः स्यात्तदाप्यनन्यमयी ॥५४७॥ फलमागन्तुकभावाः स्वपरनिमित्ता भवन्ति यावन्तः। क्षरिणकत्वान्नादेया इति बुद्धिः स्यादनात्मधर्मत्वात् ॥५४८॥3
जब अबुद्धिपूर्वक होनेवाले अर्थात् बुद्धि में न आनेवाले क्रोधादिक भाव जीव के विवक्षित होते हैं, तब अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय प्रवृत्त होता है। १ पंचाध्यायी, पृष्ठ १०६ . वही, पृष्ठ १०७ ३ वही प्र० १, श्लोक ५४६ - ५४८