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पंचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के भेद-प्रभेद ]
[ १४५ __ पंचाध्यायीकार को अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए इसमे कुछ खीच-तान भी करनी पड़ी है। क्रोधादिभाव, जो कि जीव के ही विकारी भाव हैं, उन्हें पहले तो पुदगलकर्मों के संयोग से उत्पन्न होने के कारण मूर्त कहा गया और फिर उन्हें अमूर्तजीव का कहकर असद्भूतव्यवहारनय का विषय बताया गया। उन्हें यहाँ 'प्रन्यद्रव्यस्य गुरणाः संयोज्यन्ते बलादन्यत्र' की संपूर्ति इसप्रकार करनी पड़ी।
इस संबंध में विशेष चर्चा व्यवहारनय के उपचरित-अनुपचरित, सद्भूत-असद्भूत आदि सभी भेद-प्रभेदों के स्पष्टीकरण के उपरान्त करना ही समुचित होगा।
अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का स्वरूप और विषयवस्तु पंचाध्यायी में इसप्रकार दी गई है :
"स्यादादिमो यथान्तीना या शक्तिरस्ति यस्य सतः। तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विविशेषनिरपेक्षम् ॥५३॥ इदमत्रोदाहरण ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगरणः । ज्ञेयालम्बनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ॥५३६॥ घट सद्भावे हि यथा घटनिरपेक्ष चिदेव जीवगुणः । अस्ति घटाभावेऽपि च घटनिरपेक्षं चिदेव जीवगुणः ।।५३७॥'
जिस पदार्थ की जो आत्म भूत शक्ति है, उसको जो नय अवान्तर भेद किए बिना मामान्यरूप से उसी पदार्थ की बताता है, वह अनुपचरितमद्भूतव्यवहारनय है।
इस विषय में यह उदाहरण है कि जिसप्रकार जीव का ज्ञानगुण सदा जीवोपजीवी रहता है, उसप्रकार वह ज्ञेय को जानते समय भी ज्ञेयोपजीवो नहीं होता।
जैसे घट के सद्भाव मे जीव का ज्ञानगुण घट की अपेक्षा किये बिना चैतन्यरूप ही है, वैसे घट के अभाव में भी जीव का ज्ञानगुण घट की अपेक्षा किए बिना चैतन्यरूप ही है।"
उपचरितसद्भूतव्यवहारनय का स्वरूप और विषय-वस्तु पंचाध्यायी में इसप्रकार दी गई है :
"उपचरितः सद्भूतो व्यवहारः स्यानयो यथा नाम ।
प्रविरुद्ध हेतुवशात्परतोऽप्युपचयंते यतः स्वगुणः ॥५४०॥ ' पंचाध्यायी, प्र. १, श्लोक ५३५-५३७