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[ जिनवरस्य नयचक्रम् समयसार की प्रात्मख्याति टीका के कलश २४२ में तो यहाँ तक कहा गया है कि :
"व्यवहार विमढदष्टयः परमार्थ कयंलति नो जनाः। तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयंतीह तुषं न तंडुलम् ॥२४२॥
जिसप्रकार जगत में जिनकी बुद्धि तुषज्ञान में ही मोहित है; वे तुष को ही जानते हैं, तन्दुल को नहीं। उसीप्रकार जिनकी दृष्टि व्यवहार में ही मोहित है; वे जीव परमार्थ को नहीं जानते हैं।"
उक्त कथन में व्यवहार में मोहित होने का निषेध किया गया है, जानने का नहीं। व्यवहार को जानना तो है, पर उसमें मोहित नहीं होना है। मोहित होने लायक, अहं स्थापित करने लायक तो एक परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत निजशुद्धात्मद्रव्य ही है।
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- हन्त हस्तावलंबः व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या
मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलंबः । तदपि परममथं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमंतः पश्यतां नेष किञ्चित् ॥५॥ यद्यपि प्रथम पदवी में पैर रखनेवाले पुरुषों के लिए अर्थात् जबतक शुद्धस्वरूप की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक, अरे रे ! (खेदपूर्वक) व्यवहारनय को हस्तावलम्बन तुल्य कहा है; तथापि जो पुरुष चैतन्य चमत्कारमात्र, परद्रव्य के भावों से रहित, परम-अर्थस्वरूप भगवान आत्मा को अन्तरङ्ग में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं, उसरूप लीन होकर चारित्रभाव को प्राप्त होते हैं; उन्हें यह व्यवहारनय किञ्चित् भी प्रयोजनवान नहीं है।
-प्रात्मख्याति (समयसार टीका), कलश ५