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पंचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के
भेद-प्रभेद
अब समय आ गया है कि हम पंचाध्यायी में समागत व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा करें।
पंचाध्यायी में सद्भूत और असद्भूतव्यवहारनयों की जो चर्चा प्राप्त होती है, उसमें सद्भूतव्यवहारनय का स्वरूप इसप्रकार दिया गया है :
"व्यवहारनयो द्वधा सद्भूतस्त्वथ भवेदसद्भूतः । सद्भूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात् ।।५२५॥ प्रत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुरणो विवक्ष्यः स्यात् ।। अविवक्षितोऽथवापि च सत्साधारणगणो न चान्यतरात ॥५२६॥ प्रस्यावगमे फलमिति तदितरवस्तुनि निषेधबुद्धिः स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति मेदाभिव्यञ्जको न नयः ॥२७॥
व्यवहारनय के दो भेद है- सद्भूतव्यवहारनय और असद्भूतव्यवहारनय । जिम वस्तु का जो गुग्ग है, उसकी मद्भूत संज्ञा है, और उन गरणों की प्रवृत्तिमात्र का नाम व्यवहार है।
इसका खुलासा इसप्रकार है कि इस नय में वस्तु का असाधारणगुण ही विवक्षित होता है अथवा साधारणगुण अविवक्षित रहता है । इस नय की प्रवृत्ति इसीप्रकार होती है, अन्य प्रकार से नही।
इस नय का फल यह है कि इससे विवक्षित वस्तु के सिवा अन्य वस्तु में 'यह वह नहीं है' इसप्रकार निषेधबुद्धि हो जाती है। क्योंकि परवस्तु से भेदबुद्धि का होना ही नय है, नय कुछ भेद का अभिव्यंजक नही है।"
पंचाध्यायी के अनुसार असद्भूतव्यवहारनय का स्वरूप इसप्रकार है :
"अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो नयश्च भवति यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणाः संयोज्यन्ते बलादन्यत्र ॥५२६॥ स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् ।
तत्संयोगत्वादिह मूर्ताः क्रोधादयोऽपि जीवमवाः ॥५३०॥ ' पंचाध्यायी, प्र० १, श्लोक ५२५-५२७