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________________ व्यवहारनय : कुछ प्रश्नोत्तर ] [ १४१ इस कथन में क्या विशेषहेतु है ? कृपया स्पष्ट करें। उत्तर :- संबंधों की निकटता न तो क्षेत्र के आधार पर निश्चित होती है और न एकत्व या ममत्वबुद्धि के आधार पर। जिन दो पदार्थों में सीधा (डायरेक्ट) संबंध पाया जाता है, उन्हें निकटवर्ती या संश्लिष्ट कहते हैं; तथा जिनमें वे दोनों पदार्थ किसी तीसरे माध्यम से (इन-डायरेक्ट) संबंधित होते हैं, उन्हें दूरवर्ती या असंश्लिष्ट कहा जाता है । संश्लिष्ट पदार्थों में मात्र उपचार करने से काम चल जाता है, पर असंश्लिष्ट पदार्थों में उपचार में भी उपचार करना होता है। जिसप्रकार साले और बहनोई परस्पर संबंधी हैं और साले का साला और बहनोई का बहनोई परस्पर संबंधी नहीं, संबंधी के भी संबंधी हैं । लोक में भी जो व्यवहार सबंधियों के बीच पाया जाता है, वह व्यवहार सम्बन्धियों के संबंधियों में परस्पर नहीं पाया जाता। संबंधियों के बीच अनपचरित-उपचार होता है और सबंधियों के भी संबधियों के साथ उपचार भी उपचरित ही होता है। ज्ञान और ज्ञेय के बीच सीधा सबंध है, अतः उनमें अनपचरितउपचार का अर्थात् अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का प्रयोग होता है और स्त्री-पुत्रादि व मकानादि के साथ जो आत्मा का संबंध है, वह देह के माध्यम से होता है, अतः वह उपचरित-उपचार अर्थात् उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है। (९) प्रश्न :- इन सबके जानने से लाभ क्या है ? उत्तर:-जिनवाणी में विविधप्रकार से आत्मा का स्वरूप समझाते हुए सभीप्रकार के कथन उपलब्ध होते हैं। व्यवहारनय के उक्तप्रकारों के कथन भी जिनागम में पद-पद पर प्राप्त होते हैं। व्यवहारनयों के सम्यग्ज्ञान बिना उक्त कथनों का मर्म समझ पाना सभव नहीं है, अपितु भ्रमित हो जाना संभव है। अतः इनका जानना भी आवश्यक है। तथा इन नयों के जानने का सम्यक्फल इन सब संबंधों और उपचारों को जानकर, इनकी निस्सारता जानकर एवं इन नयकथनों को वास्तविक न जान, मात्र उपचरितकथन मानकर 'पर से विभक्त और निज में एकत्व को प्राप्त निजपरमात्मतत्त्व' में ही अहं स्थापित करना है। समयसारादि ग्रंथराजों में भी सर्वत्र इन नयकथनों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराकर एकत्व-विभक्त आत्मा में जमने-रमने की प्रेरणा दी गई है।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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