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व्यवहारनय : भेद-प्रभेद ]
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को वजन की विभिन्नता तक ही सीमित रखना चाहिए, निषेध की सीमा तक नहीं ले जाना चाहिए । निषेध की बात निश्चयनय की सीमा में आती है । यहाँ तो निषेध की बात मात्र वजन का अनुपात समझाने के लिए दी है ।
चारो ही व्यवहारनय अपनी-अपनी सीमा मे प्रभेद - अखण्ड वस्तु मे भेद करते है या भिन्न वस्तु मे प्रभेद का उपचार करते है । प्रत्येक की बात मे वजन भी है, पर सभी की बात एक-सी वजनदार नही होती । आशय यह है कि प्रत्येक का कथन अपने-अपने प्रयोजनो की सिद्धि की अपेक्षा मत्यार्थ होता है, तो भी सभी का कथन एक-सा सत्यार्थ नही होता । प्रत्येक नयकथन की मत्यार्थता उसके द्वारा प्रतिपादित विषय की सत्यार्थता के अनुपात मे ही होती है ।
उपचरित -प्रसद्भूतव्यवहारनय की बात मे भी सत्यार्थता है, वजन है । असत्यार्थ मानकर उसे ऐसे ही नही उडाया जा सकता है ।
"यह मकान देवदत्त का है, कुम्हार ने घडा बनाया है, तीर्थकर भगवान समवशरण मे विराजमान है, अज्ञानी पचेन्द्रियो के विषयो को भोगता है और ज्ञानी मुनिराज उनका त्याग करते है ।"
उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय के उक्त कथनो का भी आधार है । ये सभी कथन सर्वथा असत्य नही है । लौकिकदृष्टि से देवदत्त मकान का मालिक है ही और कुम्हार का योग और उपयोग घडा बनने मे निमित्त हुआ ही है । भगवान के समवशरण मे विराजमान होने की बात को तो धार्मिक जगत मे भी अमत्य नही माना जाता, क्योकि उनकी वहाँ उपस्थिति होती ही है । इसीप्रकार पचेन्द्रिय के विषयो के ग्रहरण - त्याग की चर्चा आध्यात्मिक गोष्ठियो मे ही हल्के-फुल्के रूप मे नही, बल्कि बडी गम्भीरता से होती है ।
ये बाते भी वजनदार है, पर उतनी वजनदार नही, जितनी अनुपचरित-श्रमद्भूतव्यवाग्नय की बात होती है । देवदत्त का मकान और देवदत्त का शरीर - इन दो कथनो मे वजन का अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है । मकान और शरीर - दोनो को ही देवदत्त का बताया जा रहा है, पर देवदत्त कही जाता है तो मकान साथ नही जावेगा, किन्तु शरीर जावेगा । मकान के गिर जाने पर देवदत्त का गिरना अनिवार्य नही है, पर शरीर गिरा तो देवदत्त भी गिरा ही समझिये । इस जगत को मकान की भिन्नता जैमी स्पष्ट प्रतिभासित होती है, वैसी देह और देवदत्त मे नही दीखती । देवदत्त देहमय और देह देवदत्तमय दीखती है ।
भी देवदत्त और