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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
जितना भेदाभेद वस्तुस्वरूप में है अर्थात् जिस भेदाभेद का वस्तुस्वरूप में जितना वजन है, उतनी ही सत्यता उसे विषय बनानेवाले नय में है । प्रत्येक नयकथन के वजन का अनुपात अर्थात् उसकी विवक्षा जबतक हमारी समझ में स्पष्ट नहीं होगी, तबतक वस्तुस्वरूप भी हमारी समझ से परे ही रहेगा ।
उक्त सम्पूर्ण कथन भेद-अभेद की दृष्टि से किया गया है । इसीप्रकार कर्त्ता - कर्म आदि की दृष्टि से भी घटित कर लेना चाहिए ।
वजन या बल की बात को हम इसप्रकार समझ सकते है ।
जैसे - किसी भी संस्थान में कार्यरत सभी कर्मचारी यद्यपि कर्मचारी ही है, तथापि उनमें चार श्रेणियाँ पायी जाती हैं । उनमें उच्च अधिकारी प्रथम श्रेणी में, सामान्य अधिकारी द्वितीय श्रेणी में, लिपिकवर्ग तृतीय श्रेणी में तथा भृत्यवर्ग चतुर्थ श्रेणी में आते है ।
यद्यपि वे सभी कर्मचारी एक ही कार्यालय में काम करते है, तथापि वे अपनी-अपनी अधिकार सीमा में ही अपना-अपना कार्य करते रहते है । अपने-अपने अधिकार की सीमा में सभी की बात में वजन होता है, तो भी सभी की बात एक मी वजनदार नहीं होती । प्रत्येक की बात का वजन उसके अधिकार के वजन के अनुपात में होता है ।
भृत्य की बात में भी वजन होता है, पर लिपिक की बात के बराबर नही । भृत्य की बात का निषेध लिपिक कर सकता है, पर लिपिक की बात का निषेध भृत्य नहीं कर सकता है । इसीप्रकार लिपिक की बात को सामान्य अधिकारी काट सकता है, पर अधिकारी की बात को लिपिक नहीं काट सकता । सामान्य अधिकारी के आदेश को भी उच्च अधिकारी निरस्त कर सकता है, पर उच्चाधिकारी के आदेश को निरस्त करने का अधिकार उसके अन्तर्गत कार्य करनेवाले किसी भी कर्मचारी को नही है, पर मालिक या सर्वोच्च अधिकारी उसकी भी बात को निरस्त कर सकत है । वह सभी की बात को निरस्त कर सकता है; किन्तु उसकी बात क कोई भी व्यक्ति निरस्त नही कर सकता 'उसकी बात को कोई निरस्त नही कर सकता है' - इसका यह अर्थ नही समझना चाहिए, उसकी बात निरस्त नहीं हो सकती । उसकी बात भी निरस्त हो सकती है, पर अप ग्राप, किसी अन्य के द्वारा नहीं ।
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यही स्थिति उक्त चार व्यवहारनयों व उनका निषेध करनेवा निश्चयनय के बारे में भी है । व्यवहारनयों के संदर्भ में उक्त उदाहरर