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व्यवहारनय : भेद-प्रभेद ]
[ ११७ समझाने के लिए अभेद एकद्रव्य की आन्तरिक संरचना के स्पष्टीकरण के लिए अभेद में भेद किये जाते हैं; और विभिन्न द्रव्यों के बीच पारमार्थिक सम्बन्ध न होने पर भी वे सब इस विश्व में एक साथ किसप्रकार रहते हैं; उनमें मात्र एकक्षेत्र में रहने मात्र का ही सम्बन्ध है या अन्यप्रकार मे भी वे किमीप्रकार सम्बन्धित है; मात्र संयोग है या संश्लेष भी है। - आदि प्रश्नों का समाधान करता है व्यवहारनय ।
जिसप्रकार एक अखण्डदेश की आन्तरिक व्यवस्था को स्वराष्ट्रमंत्री-ग्रहमंत्री संभालता है और दूसरे देशों के सम्बन्ध से सम्बन्धित कार्य को परराष्ट्रमंत्री-विदेशमंत्री देखता है; उसीप्रकार अखण्ड एकद्रव्य में भेद डालकर समझने-समझाने का कार्य करता है सद्भूतव्यवहारनय और दो भिन्नद्रव्यों के बीच के सम्बन्ध बताने का कार्य असद्भूतव्यवहारनय का है।
अखण्डद्रव्य मे गण-गणी आदि के आधार पर जो भेद बताया जाता है, उसमे भी इसप्रकार का भेद किया जाता है कि यह भेद शुद्धगुण-गुणी
आदि में है या अशुद्धगुरण-गुणी आदि में। यदि शुद्धगरण-गुणी आदि में हुआ तो उसे विषय बनानेवाला नय शुद्धमद्भूतव्यवहारनय कहा जाएगा
और यदि अशुद्ध गुण-गुगगी आदि हुआ तो उसे अशुद्धमद्भूतव्यवहाग्नय कहा जाएगा।
__ इसप्रकार मद्भूतव्यवहारनय भी शुद्धसद्भूतव्यवहाग्नय और अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय के भेद से दो प्रकार का हो जाता है, जिन्हे अनुपचरितमद्भूतव्यवहारनय और उपचरितमद्भूतव्यवहारनय के नाम से भी अभिहित किया जाता है।
_ इसीप्रकार दो द्रव्यों के बीच जो सम्बन्ध बताया जा रहा है, वह संश्लेषमहित है या मंश्लेषरहित है ? यदि वह मंश्लेषसहित हुआ तो अनुपचरित-अमद्भूतव्यवहारनय का विषय होगा और यदि संश्लेषरहित हुआ तो उपचरित-अमद्भूतव्यवहारनय की विषय-मीमा में पायेगा।
इसप्रकार अनुपचरित और उपचरित के भेद से अमद्भूतव्यवहारनय भी दो प्रकार का हो जाता है।
___ इसप्रकार हम देखते हैं कि अलौकिक विश्व की संरचना एवं स्वचालित पूर्णव्यवस्थित-व्यवस्था ममझाने के लिये व्यवहारनय और उसके उक्त भेद-प्रभेद मार्थक ही नहीं, आवश्यक भी हैं।
__ इन नयों की सत्यता-असत्यता वस्तुस्वरूप में विद्यमान व्यवस्था के अनुपात में है और उपयोगिता उक्त वस्तुस्वरूप को समझने-समझाने में है।