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[ जिनवरस्य नयचक्रम् यद्यपि देवदत्त से देह और मकान दोनों ही भिन्न हैं, पर देवदत्त की जैसी भिन्नता मकान मे है, वैसी देह मे नही। देह संश्लेषसहित संयोग है और मकान संश्लेषरहित संयोग ।
इसी अन्तर के आधार पर ही जगत कहता है - 'मकान गया तो जाने दो, देह है तो मकान तो अनेक हो जायेगे। जान बची तो लाखो पाये' - वाली कहावत में 'जान' माने 'देह' ही होता है। जान बची माने देह का संयोग बना रहा तो सब-कुछ हो जावेगा।
इसीलिये – 'देहवाला जीव, दश प्रारणों से जोवे सो जीव, मूर्तिक जीव, द्रव्यकर्मो व शरीगदि नोकर्मों का कर्ता जीव' ये मभी कथन अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के है।
इन दोनों असदभूतनयो से भी वजनदार बात होती है - उपचरितमद्भूतव्यहारनय की, क्योकि उममे एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य मे सम्बन्धादि व एक द्रव्य का कर्ता-हर्ता-धर्ता दूसरे द्रव्यों को न बताकर एक द्रव्य में ही भेद किया जाता है। जैसे - मनिज्ञानादि व रागादि को आत्मा का कहना।
मनिज्ञान और रागादि प्रात्मा की ही अल्पविकसित और विकारी पर्याय है । ये आत्मा मे है अर्थात् सद्भूत है । सद्भूत होने पर भी अविकसित है, विकारी है, अशुद्ध है - इमकारण उपचरित कही गई है।
__ इनकी सत्ता स्वद्रव्य की मर्यादा के भीतर ही है । अतः इनका वजन असद्भूत के दोनो भेदों से अधिक है, पर ये अनुपचरितमदभूत से कम वजनदार है, क्योंकि अनुपचरितमद्भूत मे पूर्ण निर्विकारी पर्याय या गुण लिये जाते है । जैसे- केवलज्ञान प्रात्मा की शुद्ध पर्याय है या ज्ञान प्रात्मा का गुग्ग है।
इमप्रकार हम देखते है कि व्यवहार की बात मे भी वजन है और नयकथनो के उक्त क्रम में उत्तरोतर अधिक वजन है। इसी का उल्टा प्रयोग करे तो यह भी कहा जा सकता है कि उत्तरोतर वजन कम है।
उक्त चारो व्यवहारों से भी अधिक वजन निश्चयनय में होता है। यही कारण है कि उसके मामने इनका वजन काम नही करती है और वह इनका निषेध कर देता है।
जैमाकि ऊपर लिखा जा चका है कि एक देश मे प्रदेश और विभागो मे भेद तो व्यवस्था के लिए किये गये है तथा दो देशों के बीच सम्बन्ध भी प्रयोजनवश स्थापित किये गये है। उनकी मर्यादा इतनी ही है। यदि