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[ जिनवरस्य नयचक्रम् जिसप्रकार सर्वप्रभुता-सम्पन्न अनेक देशों के समुदायरूप यह लौकिक विश्व है । पूर्ण स्वतन्त्रता को प्राप्त अनेक देश इसकी इकाइयाँ है । प्रत्येक इकाई अपने मे परिपूर्ण है, अखण्ड है, पूर्ण स्वतन्त्र है ।
उसीप्रकार सर्वप्रभुता-सम्पन्न, अखण्ड, अनन्तानन्त द्रव्यो के समुदायरूप यह अलौकिक विश्व है। अनन्तानन्त द्रव्य इसकी इकाइयाँ है । प्रत्येक इकाई अर्थात प्रत्येक द्रव्य अपने मे परिपूर्ण है, अखण्ड है, पूर्ण स्वतन्त्र है।
जिसप्रकार देश के भीतर अनेक प्रदेश होने पर भी वह खण्डित नही होता; उसीप्रकार द्रव्यरूपी देश के भीतर भी अनेक प्रदेश हो सकते है, होते है, पर उनसे वह खण्डित नही होता।
जिसप्रकार प्रत्येक देश की अपनी शक्तियाँ और अपनी व्यवस्थाये होती है, पर उन शक्तियो और व्यवस्थाओं के कारण देश को अखण्डता खण्डित नही होती, प्रभुसम्पन्नता प्रभावित नही होती। उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य में अनन्त शक्तियाँ होती है और उनकी अनन्तानन्त अवस्थाये भी होती है, पर उन शक्तियों और अवस्थाओ के कारण द्रव्य को अखण्डता खण्डित नही होती, प्रभुसम्पन्नता प्रभावित नहीं होती।
किसी देश की अखण्डता या प्रभुसम्पन्नता तब प्रभावित होती है, जब कोई दूसरा देश उसकी सीमा का उल्लंघन करता है, उसकी निजी व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप करता है। उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य की अखण्डता और प्रभुसम्पन्नता नभी प्रभावित होती है कि जब कोई अन्य द्रव्य उसकी सीमा में प्रवेश करे या उसकी अवस्थाओ मे हस्तक्षेप करे ।
जिसप्रकार देश अपनी अखण्डता और एकता कायम रखकर शासन, प्रशासन और व्यवस्थाओं की दृष्टि से अनेक प्रदेशों, जिलो, नगरों, ग्रामो आदि में तथा भागों-विभागो में भेदा जाता है; उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य भी अपनी अखण्डता और एकता कायम रखकर समझने-समझाने आदि की दृष्टि से गुण-गुणी, प्रदेश-प्रदेशवान, पर्याय-पर्यायवान आदि मे भेदा जाता है।
यद्यपि एक देश की मर्यादा मे किए जानेवाले ये प्रदेशो के भेद वैसे नही होते, जैसे कि दो देशों के बीच होते है; तथापि ये भेद सर्वथा काल्पनिक भी नही होते । उसीप्रकार एक द्रव्य की मर्यादा के भीतर किये गये गुणभेदादि भेद दो द्रव्यों के बीच होनेवाले भेद के समान अभावरूप न होकर अतद्भावरूप होते हैं।