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________________ व्यवहारनय : भेद-प्रभेद ] [ ११३ - उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से यह आत्मा, काप्ठासन आदि पर बैठे हए देवदत्त की भाँति, अथवा समवशरण में स्थित वीतराग-सर्वज्ञ की भाँति विवक्षित किसी एक ग्राम या घर में स्थित है।" (५) "उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपंचेद्रियविषयजनितसुख-दुःखं भुङ्क्ते ।' उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से यह जीव इष्टानिष्ट पंचेन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न सुख-दुःख को भोगता है।" (६) "योऽसौ बहिविषये पंचेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपरितासद्भूतव्यवहारेण ।। बाह्यविषयों में पंचेन्द्रिय के विषयों का परित्याग भी उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय से है।" व्यवहारनय के उक्त भेद-प्रभेदों के स्वरूप और विषयवस्तु के विशेष स्पष्टीकरण के लिए, विशेष विस्तार और गहराई में जाने के पूर्व, नयप्रयोगों में प्रवीणता प्राप्त करने एवं उनके मर्म को समझने के इच्छुक प्रात्मार्थीजनों से अनुरोध है कि उक्त नयों के स्वरूप व विषयवस्तु को स्पष्ट करनेवाले उल्लिखित शास्त्रीय उद्धरणों का गहराई से अध्ययन कर लें। उक्त उद्धरणों में प्रतिपादित विषयवस्तु के हृदयङ्गम कर लेने के बाद तत्संबंधी गंभीर और विस्तृत चर्चा सहज बोधगम्य होगी। यह दावा करना तो संभव नहीं है कि उक्त उद्धरणो के रूप मे जिनवाणी में समागत सभी प्रयोगों को प्रस्तुत कर दिया गया है, पर यह बात अवश्य है कि यहाँ पंचाध्यायी के वरिणत व्यवहारनयों के स्वरूप और विषयवस्तु को छोड़कर अधिकांश प्रयोगों को समेटने का प्रयास अवश्य किया गया है। ___पंचाध्यायी में समागत प्रयोग उक्त धारा से कुछ हटकर है। अतः उन पर यथास्थान अलग से विचार किया जायगा । प्रश्नोत्तरों के माध्यम से तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया जायगा। व्यवहारनय के पूर्वोक्त भेद-प्रभेदों के स्वरूप और विषयवस्तु को हम निम्नलिखित उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकते है। 'बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ६ की संस्कृत टीका २ बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४५ की संस्कृत टीका
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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