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[ जिनवरस्य नयचक्रम् जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित-असद्भूतव्यहारनय से द्रव्यकर्मो द्वारा किए गए है।"
(७) "अनपचरितासदभूतव्यवहारनयेन द्वचरणकादिस्कन्धेषु संश्लेषबन्धस्थितपुद्गलपरमाणुवत्परमौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितकदेहस्थितम् ।'
अनुपरित-असद्भूतव्यवहारनय से यह प्रात्मा द्वि-अणुक आदि स्कन्धो मे मश्लेषबन्ध से स्थित पुद्गलपरमाणुमो की भॉति अथवा औदारिक आदि शरीरो मे से विवक्षित किसी एक देह मे स्थित वीतरागसर्वज्ञ के समान है।" (घ) भिन्नवस्तुप्रो के सश्लेषरहित सम्बन्ध को विषय करनेवाले उपचरितअसद्धृतव्यवहारनय के स्वरूप व विषयवस्तु को स्पष्ट करनेवाले कतिपय शास्त्रीय उद्धरण इसप्रकार है -
(१) "संश्लेषरहितवस्तुसंबंधविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो, यथा- देवदत्तस्य धनमिति ।
मश्लेषरहित वस्तुप्रो के सम्बन्ध को विषय करनेवाला उपचरितअमद्भूतव्यवहाग्नय है । जैसे - देवदत्त का धन है ।'
(२) "प्रसद्भुतव्यवहारः एवोपचारः, उपचारादप्युपचार य करोति स उपचारितासद्भतव्यवहारः ।।
असद्भूतव्यवहार ही उपचार है अोर उपचार में भी जो उपचार करता है, वह उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है।'
(३) "उपचारितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता।
उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से आत्मा घट, पट और रथ आदि का कर्ता है।"
(४) "उपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन काष्ठासनाधुपविष्टदेवदत्त वत् समवशरणस्थितवीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितकग्रामगृहादिस्थितम् । ' प्रवचनसार, जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका के परिशिष्ट २ पालापपद्धति पृष्ठ २२८ 3 वही, पृष्ठ २२७ ४ नियमसार, गाथा १८ की तात्पयवृत्ति टीका । प्रवचनसार की जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका का परिशिष्ट