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व्यवहारनय : भेद-प्रभेद 1
[ ११५ दो देशों के बीच जो विभाजन रेखा होती है, वह अत्यन्ताभावस्वरूप होती है। उन दोनों के सुख-दुःख, लाभ-हानि सम्मिलित नहीं होते। प्रत्येक के अपने सुख-दुःख, लाभ-हानि, अपनी समृद्धि, अपनी सुरक्षाव्यवस्था, अपने हिताहित पृथक्-पृथक् होते हैं। किन्तु एक देश के विभिन्न प्रदेशों, जिलों, नगरों, ग्रामों, विभागों के सुख-दुःख, समृद्धि, सुरक्षा, हिताहित, लाभ-हानि सम्मिलित होते हैं - यही कारण है कि ये भेद वास्तविक नहीं, व्यवस्था के लिए किए गये काल्पनिक भेद हैं ; पर है अवश्य, इनसे सर्वथा इन्कार करना भी वास्तविक नहीं है।
उसीप्रकार दो द्रव्यों के बीच जो विभाजन रेखा होती है, वह अत्यन्ताभावस्वरूप होती है; क्योंकि उन दोनों के सुख-दुःख, लाभ-हानि सम्मिलित नहीं होते । प्रत्येक के अपने सुख-दुःग्व, लाभ-हानि, अपनी ममृद्धि, अपनी सुरक्षा-व्यवस्था, अपने हिताहित पृथक्-पृथक् होते है। किन्तु एक द्रव्य के प्रदेशों, गुणों और पर्यायों के सुख-दुःख, समृद्धि, सुरक्षा और हिताहित सम्मिलित होते हैं - यही कारण है कि द्रव्य की मर्यादा के भीतर समझने-समझाने की दृष्टि से किये गये भेद वास्तविक नहीं हैं; पर है अवश्य, इनसे सर्वथा इन्कार करना भी वास्तविक न होगा।
इसप्रकार के भेद को शास्त्रीय भाषा में प्रतदभावरूप भेद कहते है।
यद्यपि प्रत्येक देश अपनी स्वतन्त्र प्रभुसम्पन्न सत्ता का स्वामी है, किसी देश का हस्तक्षेप उसे स्वीकार नही है; तथापि विश्व के अनेक देशो के बीच किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध सर्वथा न हो-ऐसी बात भी नहीं है । एक दूसरे के बीच कुछ व्यवहारिक सम्बन्ध पाये ही जाते है। उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य अपनी स्वतन्त्र प्रभुमम्पन्न सत्ता का स्वामी है, किसी अन्य द्रव्य का हस्तक्षेप उसे स्वीकार नहीं है; तथापि अनेक द्रव्यों के बीच किसीप्रकार का कोई सम्बन्ध सर्वथा ही न हो- ऐसी बात भी नहीं है। एक दूसरे के बीच कुछ व्यवहारिक सम्बन्ध पाये ही जाते है।
देश की प्रान्तरिक व्यवस्था में जितना बल राष्ट्रीयता पर दिया जाता है, उतना प्रान्तीयता पर नहीं। राष्ट्रीय भावना उदात्त मानी जाती है और प्रान्तीय भावना या प्रान्तीयता को हेयदृष्टि से देखा जाता है, क्योंकि राष्ट्रीयता देश की एकता को मजबूत करती है और अखण्डता की पोषक होती है, जबकि प्रान्तीयता अखण्डता की विरोधी होने से देश की एकता को कमजोर करती है।
उसीप्रकार द्रव्य की आन्तरिक व्यवस्था में जितना बल अभेद पर दिया जाता है, उतना बल भेद पर नहीं । अभेदग्राही निश्चयनय को भूतार्थ