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________________ प्रकाशकीय ] [ ३ कहकर कि 'यह तो विद्वानों की चीज है, इममें हमे नही उलझना है', उपेक्षा कर देते हैं या फिर अनिर्णय के शिकार हो जाने हैं। इमप्रकार यह मानव जीवन यों ही व्यर्थ निकल जाता है और कुछ भी हाथ नही पा पाना है। जिनागम में प्राप्न मभी ग्रन्थों का गहराई में अध्ययन कर, मनन कर तथा स्व० पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के मान्निध्य का पूग-पूग लाभ उठाकर डॉ० हुकमचन्दजी भागिल ने इम कमी को पृग करने के लिए यह महान् ऐतिहामिक कार्य किया है, इसका मूल्यांकन हम क्या करें, इतिहाम करेगा। इम ऐतिहासिक अमरकृति में उन्होंने नयग्रन्थो के अध्ययन में आनेवाली गुत्थियो को स्वयं उठा-उठाकर उनका समुचित समाधान प्रस्तुत किया है. विरोधी प्रतीत होनेवाले विभिन्न कथनो मे मार्थक समन्वय स्थापित किया है। उनके मर्म को खोला है और उनका यथार्थ प्रयोजन स्पष्ट किया है। उनके इम अभूतपूर्व कार्य का वाम्नविक अानन्द नो टमका गहगई में अध्ययन करनेवाले आत्मार्थी ही उठा मकते है। पागम में नयों का प्रतिपादन दो प्रकार में उपलब्ध हाता है, प्रागमिकनय और आध्यात्मिकनय । वस्तुम्वरूप का प्रतिपादन करनेवाले आगमिक नयों का विषय छही द्रव्य बनते है और आध्यात्मिक नयां का विषय मुख्यरूप में प्रात्मा ही होना है । दोनो की प्रतिपादन शैली में भी अन्तर है। दोनों ही शैलियो मे नयों के बहुत कुछ नाम एकसे पाये जाने में भी भ्रम उत्पन्न होने की संभावनाएँ रहती है। इस अनूठे ग्रन्थ में डॉक्टर माहब ने दोनो शैलियों का अन्नर बहुत अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है तथा यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अन्ततोगत्वा मबका प्रयोजन तो एक मात्र एकत्व-विभक्त आत्मा को प्राप्त करना ही है. जिसके प्राश्रय में वीतरागतारूप धर्म की उत्पत्ति होती है और अनन्त मुग्व-शान्ति की प्राप्ति होती है। हम ग्रन्थ की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमे नय कथना के अध्ययन में आनेवाली गुत्थियों को प्रतिदिन काम आने वाले रोचक उदाहरगों से मरल करके समझाया गया है । कई उदाहरण नो मांगरूपक जैसे लगते है । __ आत्मार्थी समाज पर सर्वाधिक उपकार तो पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी का है, जिनके उपदेशो के माध्यम से समाज में अध्ययन-मनन की रुचि जागृत हुई है । गुरुदेवश्री ने जिनवागी के गूढ़ से गूढ़ मर्म को सरल से सरल भाषा मे उजागर कर दिया है। उमी का फल है कि डॉ० हुकमचन्दजी भारिल्ल जैसे अनेक विद्वान् तैयार हो गये है, जिनके द्वारा सुसुप्त जैनधर्म एक बार फिर जागृत होकर जन-जन की चीज बन गया है।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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