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________________ [ जिनवरस्य नयचक्रम् होने से सन्दर्भ टूट जाता है और बार-बार अध्ययन करने मे असुविधा होती है। तब मुझे इसकी महिमा विशेष भासित हुई। जब इसप्रकार के भाव अन्य भाइयों ने भी व्यक्त किये, तब इसे पुस्तकाकार प्रकाशित करने की भावना जागृत हुई । यद्यपि डॉ० भारिल्लजी द्वारा लिखित अब तक जितनी भी लेखमालाये प्रात्मधर्म के मम्पादकीयो के रूप में चलाई गई है, वे सभी अनेक भाषामो मे पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुकी है और ममाज ने उन्हें हृदय से अपनाया है, अत इसके भी पुस्तकाकार प्रकाशित करने की योजना तो थी ही, किन्तु यह कार्य लेखमाला के ममाप्त होने पर ही सम्पन्न हो पाता। जब मन् १९८० ई० के श्रावणमाम में लगनेवाले मोनगढ शिविर में दूसरी बार भी टमी विषय को उत्तम कक्षा में उन्होने चलाया, तब तक इसका बहुत कुछ अश आत्मधर्म में प्रकाशित हो चुका था। इसकारण यह विषय बहुचचित हो गया था । यद्यपि पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की तबियत ठीक नही थी, नथापि उनकी इच्छानुमार उनकी उपस्थिति में ही स्वाध्याय मन्दिर में यह कक्षा चली; जिसे उन्होंने भी मनोयोगपूर्वक मुना। अब तक मुमुक्षु बन्धुनो को भी इस विषय का पर्याप्त परिचय हा गया था। इस शिविर में १६०० प्रात्मार्थी मुमुक्षुभाई पधारे थे, जिनमे लगभग १५० वे विद्वान भी थे, जो मोनगढ की अोर से पy पगा पर्व के अवमर पर ममाज में प्रवचनार्थ जाते है और तत्वप्रचार की गतिविधियां मचालित करते है। उमममय उन मबमे नयों का प्रकग्गा चर्चा का मुख्य विषय बन गया था। प्रान्मधर्म के मम्पादकीयो के रूप में इसके समाप्त होने में वर्षों की देग देखकर एव प्रात्मार्थी मुमुक्षु बन्धुप्रो की उन्मुकता को लक्ष्य में रखकर निश्चयव्यवहार प्रकरण ममाप्त होते ही इमे पूर्वाद्ध के रूप में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया । फलस्वरूप प्रस्तुत कृति आपके हाथ मे है । नयो का विषय जिनवाणी में प्रचचित नहीं है। 'नयचक्र' नाम में भी अनक ग्रन्थ उपलब्ध होते है और अन्य ग्रन्थों में भी प्रकरण के अनुसार यथास्थान नयो की चर्चा की गई है। नयो के कथन करनेवाले ग्रन्थो की जानकारी अन्न में दी गई 'मन्दर्भ ग्रन्थ मूची' में प्राप्त की जा सकती है। नयो का म्वरूप जानने के लिए जब माधारण पाठक नयचक्रानि का अवलोकन करता है तो उनमे प्राप्त विविधता पार विम्नार, वि के कथन में इमप्रकार उलझने लगता है कि उसे यह नयचक्र दन्द्रजाल लगता है और अध्ययनकाल में ममागत गुत्थियो को मुलझाने में जब असमर्थ पाता है, तब या तो घबडाकर उसके अध्ययन में ही विग्त हो जाता है या फिर यद्वा-तद्वा मिथ्याभिप्राय का पोपण करने लगता है। बहत मे लोग तो यह
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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