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[ जिनवरस्य नयचक्र यहाँ 'समय' शब्द मे मामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते है. क्योंवि व्युत्पत्ति के अनुसार 'समयते' अर्थात् एकीभाव से (एकत्वपूर्वक) अपने गुण पर्यायो को प्राप्त होकर जो परिणमन करता है, सो समय है। इसीलिा धर्म-अधर्म-आकाश-काल-पुद्गल-जीवद्रव्यस्वरूप लोक मे सर्वत्र जो कुछ जितने पदार्थ है, वे मभी निश्चय से (वास्तव मे) एकत्वनिश्चय को प्राप्त होने से ही सुन्दरता को पाते है; क्योकि अन्य प्रकार से उनमे सर्वसकराति दोष आ जायेगे। वे सब पदार्थ अपने द्रव्य मे अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्तधर्मो के चक्र को (समूह को) चुम्बन करते है-स्पर्श करते है तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते । अत्यन्त निकट एकक्षेत्रा वगाहरूप से तिष्ठ रहे है, तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूप से च्यूत नह होते । पररूप परिणमन न करने से अनन्त-व्यक्तिता नष्ट नहीं होती इसलिए वे टकोत्कीर्ग की भॉति (शाश्वत) स्थित रहते है और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनो की हेतुता से वे सदा विश्व क उपकार करते है-टिकाये रखते है।"
पागम के इस महासत्य की ठोम दीवार को आधार बनाकर परमागम अर्थात् अध्यात्म, आत्मा की अनुभूति है लक्षण जिसका ऐसे मोक्षमार्ग की प्राप्ति के प्रयोजन से निश्चयनय की उक्त परिधि को भी भेदकर द्रव्यम्वभाव की सीमा से पर्याय को पृथक कर, गुणभेद से भी भिन्न अभेद अखण्ड त्रिकाली प्रात्मतत्त्व को जीव कहता है; क्योकि वही दृष्टि का विषय है वही ध्यान का ध्येय है और वही परमशुद्ध. निश्चयनय का विण्य है।
यद्यपि अशुनिश्चयनय से रागादिभाव प्रात्मा की ही विकारी पर्याय है, तथापि शुद्धनिश्चयनय उन्हे स्वीकार नही करता। उन्हे पुद्गलकर्म के उदय से उत्पन्न हुए होने के कारण निमित्त की अपेक्षा से पुद्गल तक कह दिया जाता है । किन्तु एक तो वे पुद्गल मे होते देखे नही जाते है, दूमरे यदि उन्हे पुद्गल का माना जाएगा तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को छूता नही, एक द्रव्य दूसरे भावो का कर्ता-हर्ता नही - इम महासिद्धान्त का लोप होने का प्रसङ्ग उपस्थित होगा। प्रत न उन्हे जीवतत्त्व मे ही सम्मिलित माना जा सकता है और न पुद्गलरूप अजीवतत्त्व मे हो। यही कारण है कि उन्हे आस्रवादितत्त्व के रूप में दोनो से पृथक् ही रखा गया है। इसप्रकार जिनवाणी मे रागादिभाव आस्रव, बन्ध, पुण्य व पापरूप स्वतत्रतत्त्व के रूप मे उल्लिखित हुए है।