________________
निश्चयनय : कुछ प्रश्नोत्तर ]
इसप्रकार स्याद्वाद ही शरण है, अन्य कोई रास्ता नही है; अधिक विकल्पों से कोई लाभ नहीं होगा। वस्तु बड़ी अद्भुत है, इसलिए उसकी बात भी अद्भुत है। अतः विकल्पों का शमन करके निर्विकल्प होने मे ही सार है । वस्तु निर्विकल्प है, अतः उसकी प्राप्ति भी निर्विकल्पदशा मे ही होती है।
यदि आप निश्चयनय के भेद-प्रभेदो के सम्बन्ध मे उक्त स्याद्वाद को शरण न लेगे तो सात तत्त्वो की भी सिद्धि सम्भव न होगी।
(१३) प्रश्न :-निश्चयनय के भेद-प्रभेदों के सम्बन्ध मे उक्त स्याद्वाद को स्वीकार न करने पर मप्ततत्त्व की सिद्धि में क्या बाधा आवेगी? क्या सात तत्त्वो के निर्धारण में निश्चयनय के उक्त भेद-प्रभेदो का कोई हाथ है ? यदि हाँ, तो क्या और कैसे ? कृपया स्पष्ट करे।
उत्तर :-प्रत्येक द्रव्य परद्रव्यो एव उनके गण-पर्यायो से भिन्न तथा अपने गुरण-पर्यायो से अभिन्न है - सामान्यत: यह कथन निश्चयनय का है। किसी द्रव्य को, अन्य द्रव्य और उनके भावो मे अभिन्न कहना या अन्यद्रव्य के भावो का कर्ता-हर्ता कहना व्यवहारनय का वचन है।
निश्चयकथन भूतार्थ है और व्यवहारकथन प्रयोजनवश किया गया उपचरितकथन है । व्यवहारकथन प्रयोजनपुरत ही भूतार्थ है, वस्तुत तो वह अभूतार्थ ही हैं। इसप्रकार दो द्रव्यो के बीच अत्यन्ताभाव की मोटी दीवार है, कोई किसी का कर्ता-हर्ता-धर्ता नही है। सभी द्रव्य अपनी-अपनी अच्छी-बुरो परिणति के उत्तरदायी स्वय है ।
सब द्रव्यों के सम्बन्ध मे यह महामत्य त्रिकाल अबाधित है, द्रव्यो की अनन्त स्वतंत्रता का उद्घोषक है।
समयसार, गाथा ३ की टीका मे प्राचार्य अमतचद्र ने इस महासत्य की घोषणा इसप्रकार की है -
__"समयशब्देनात्र सामान्येन सव एवार्थोऽभिधीयते। समयत एकीभावेन स्वगुरणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्तेः। ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावंतः केचनांऽप्यस्तेि सर्व एव स्वकीयद्रव्यांतर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचुम्बिनोऽपि परस्परमचम्बंतोत्यंत प्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतंतः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानंत व्यक्तित्वाट्टोत्कीर्णा इव तिष्ठतः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगाँतो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौंदर्यमापचंते, प्रकारान्तरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः ।