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निश्चयनय : कुछ प्रश्नोत्तर ]
[ १७ इसीप्रकार अपूर्णशुद्धपर्यायें संवर व निर्जरा तथा पूर्णशुद्धपर्याय मोक्षतत्त्वरूप स्वतन्त्रतत्त्व के रूप में उल्लिखित हुए है, क्योंकि पर्याये होने मे इन्हें भी दृष्टि के विषय में शामिल नहीं किया जा सकता है ।
द्रव्यास्रवादि और द्रव्यसंवरादि के सम्बन्ध में भी इसीप्रकार जानना चाहिए, क्योंकि यद्यपि वे वस्तुतः तो पुद्गल की ही पर्याय है, तथापि उनमें जोव के रागादि विभाव और वीतरागादि स्वभावभाव निमित्त होते है।
इसप्रकार भावास्रवादि व भावसवगदिरूप जीव की पर्यायो एव द्रव्यास्रवादि व द्रव्यसंवरादिरूप अजीव की पर्यायो को सम्मिलित कर पर्यायरूप आस्रवादि व संवगदि तत्त्वो को पृथक् रखना ही उचित है, क्योंकि न तो उन्हे परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत जीवद्रव्य मे ही शामिल किया जा सकता है और न उन्हे सर्वथा पुद्गल ही माना जा सकता है। परस्परोपाधि से हुए होने से उन्हे औपाधिकभाव भी कहा जाता है।
परजीवो, पुद्गलादि-अजीवो तथा प्रास्रवादि-पर्यायतत्त्वो से भी भिन्न निजशुद्धात्मतत्त्व ही वास्तविक निश्चय अर्थात् परम शुनिश्चयनय का विषय है।
नवतत्त्वो मे छुपी हुई, परन्तु नवतत्त्वो से पृथक् प्रात्मज्योति ही शुद्धात्मतत्त्व है । इस शुद्धात्मतत्त्व को दृष्टि, ज्ञान और ध्यान का विषय बनाना ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, मोक्षमार्ग है। इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए ही अध्यात्मरूप परमागम निश्चयनय के उक्त भेद-प्रभेद करता है और फिर उन भेद-प्रभेदो में एक परमशुद्धनिश्चयनय को ही परमार्थ-निश्चय स्वीकार कर निश्चयनय के अन्य भेदो को व्यवहार कहकर अभूतार्थ कह देता हे अर्थात् उनका निषेध कर देता है।
आत्मा के अनुभवरूप प्रयोजन की सिद्धि परमागम की उक्त प्रक्रिया से ही सभव है।
आगम में छह द्रव्यो की मख्यता में प्रोर अध्यात्मरूप परमागम मे आत्मद्रव्य की मुख्यता से कथन होता है ।
(१४) प्रश्न :- आपने अभी-अभी अध्यात्म का परमागम कहा है, इसका उल्लेख कही आगम मे भी है क्या?
उत्तर :- हाँ, है । प्राचार्य जयसेन प्रवचनसार, गाथा २३२ की टीका में 'रिणच्छित्ती प्रागमदो' पद की व्याख्या करते हुए लिखते है - ' 'नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्व न मुञ्चति' - समयसार, कलश ७