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जिनवाणी तीर्थकर, अनन्त दर्शन-ज्ञान-मुख-वीर्यरूप अथवा अपायापरमादि, चार अतिशयोंके अधिकारी होते है। 'अपायापगमातिशय'तीर्थकर भगवानको किसी प्रकारका क्लेश परेशान नहीं कर सकता। 'ज्ञानातिशय ' - संसारके समस्त व्यापार इनके ज्ञानमें प्रतिफलित होते है। 'पूजाविशय'-तीनों जगतके जीव- मनुष्य, तियच और देव सभी जीव-इनको पूजते हैं । 'वचनाविशय' -तीर्थङ्करोंका उपदेश सबको रुचिकर होता है, सबकी समझमें आता है और सबके लिये कल्याणकारी होता है।
तीर्थकर साक्षात् भगवान अथवा प्रत्यक्ष ईन्वर हैं । जैन साहित्यमें तीर्थकरोंके रूप, गुण और ऐश्वर्य सम्बन्धी बहुत वर्णन मिलता है। तश्रिङ्कर जन्मसे ही मति, श्रुत और अवविज्ञानधारी होते है। (१) इनका शरीर जन्मसे ही अपूर्व कान्तिमान् होता है। मलिनता इनसे दूर रहती है और जिस प्रकार पुप्पसे पराग उड़ता है उसी प्रकार भगवान तीर्थकरके शरीरसे सुवास आती है । (२) तीर्थकरके नि श्वासमें भी अत्यन्त माधुर्य और सौरभ होता है। (३) उनके शरीरका रक्त, मांस विशुद्ध तथा सफेद होता है। (४) केवलज्ञान प्राप्त होने पर, उनका उपदेश सुननेके लिये प्राणिमात्र उत्कण्ठित हो जाते है । यह उपदेशसमा 'समवसरण' कहलाती है। (५) समवसरणमें देव, मनुष्य और तिथंच भी आते है । सत्र अपनी अपनी जगह बैठते और उपदेश सुनते हैं । (६) तीर्थङ्करकी भाषा पशु-प्राणी भी समझते हैं। उनकी वाणी रस, माधुर्य और अर्थसे परिपूर्ण होती है। (७) अर्हत् दिव्य भामण्डलसे विभूषित होते हैं । (८) जहां जहां वे विचरण करते हैं