________________
ईश्वर क्या है?
"निश्चयेनाशरीरोऽपि व्यवहारेण सप्तधातुरहितदिवाकरसहस्रमासुरपरमौदारिकशरीरित्वाद शुभदेहस्थः।" - निश्चयनयके अनुसार अर्हत् अशरीरी हैं; व्यवहारनयके अनुसार इनका शरीर अति पवित्र, सप्तधातुरहित तथा सहस्र सूर्योकी कांतिकें समान दीतिमान होता है अर्थात् वह बहुत ही शुद्ध होता है। इन्हें भूख, प्यास, भय, द्वेष, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मृत्यु, खेद, स्वेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विपाद-इन अठारह दोषों से कोई दोष स्पर्श नहीं कर सकता। अर्हत् वीतराग, अतिशुद्ध और निरंजन है।
ब्राह्मणधर्मावलंबी जिस प्रकार रामचन्द्रादिको अवतार मानते हैं; जिस प्रकार बौद्ध बुद्धको मानते हैं उसी प्रकार जैन लोग तीर्थङ्करको मानते है । पृथ्वीके पापभारको हटानेके लिये, सद्धर्मके पवित्र प्रकाश द्वारा अन्धकारको मिटानेके लिये, कल्प कल्पमें तीर्थकर जन्म लेते है । जब ये माताके गर्भ में आते हैं तो उनकी माताएं शुभ स्वप्न देखती है। तीर्थङ्करोंके अवतार और जन्माभिषेकके समय एवं दीभा, केवलज्ञानप्राप्ति और निर्वाणके समय इन्द्रादि देवसमूह इनकी वन्दना करने और महोत्सव मनाने आते है। इस प्रकारको पंच महाकल्याणरूप पूजा (अहीं) प्राप्त होनेसे तीर्थङ्कर " अर्हत" भी कहलाते है।
उन्हें अनान, हिंसा, जूठ, चोरी, निद्रा, क्रोध, मान, माया, लोम, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, ईर्ष्या, दम, क्रीडा और प्रेम (राग) इन अटारहमसे एक भी दोष छू सकता नहीं है। अर्हत् वीतराग अतिशुद्ध एव निरजन हैं।
(मु. श्री. दर्शनविजयजी)