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________________ ५२ जिनवाणी करते है । णटुचदुघाद्वकम्मो, दंसणसुहणाणवी रियमई ओ | सुहृदेहत्थो अप्पा, सुद्धो नरिहो विचिन्विजो ॥ - द्रव्यसग्रह ५० । वे अरिहन्त, जिनके चारों प्रकारके धातिकर्म नष्ट हो चुके हैं, जो अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तज्ञान और अनन्तवीर्यके अधिकारी हैं, वे शुभ देहधारी हैं और वे ही शुद्ध है। उनका चिन्तवन ( ध्यान ) करना चाहिये । अर्हत देहधारी होने पर भी उन्हें किसी प्रकारकी आसक्ति नहीं होती । अत एव उन्हे अगरीरी भी कह सकते है । अर्हतको देहकी उज्ज्वलताके सामने हजार सूर्यका प्रकाश भी पराभूत हो जाता है । ब्रह्मदेव कहता है * - * यह नत ब्रह्मदेवजीका है, जो उपलब्ध जिनागमके तीर्थंकर वर्णनसे भिन्न है। जिनागनोंनें तीर्थंकरोंका वर्णन निम्न प्रकार मिलता है अरिहत सशरीरी हैं। उनकी सयोगि गुणस्थानमें स्थिति है । अत उन्हें मन है, वाणी है, औदारिक देह है, आहारपर्याप्ति है । तत्त्वार्य - सूत्रके " एकादशजिने ॥९-११॥" सूत्र के अनुसार भूख हे, प्यास है और रोग है। उन्हें अतराय कर्मका अभाव है अत आहार आदि मिलते हैं एव वे आहार लेते हैं । उन्हें थाहारसे निप्पन्न औदारिक शरीर है. वज्रऋषभनाराच सहनन है, हड्डियोंका दृढतर मिलान है, हट्टिया हैं, सफेद खून है, सफेद मास है, यावत् अन्तत सातों धातु हैं और दश आणोंके विच्छेद रूप मृत्यु भी है। परमार्थसे तीर्थकर भगवान् विना आसक्ति, आहार, निहार, विहार, उपदेश, प्रश्नोत्तर और शिक्षाप्रदान इत्यादि शरीरजन्य सब काम करते है । I
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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